लेह- लद्दाक 

|| लेह- लद्दाक || 


कुछ यादें जिंदगी में ऐसी बन जाती हैं जिन्हें जीवन प भर भुलाया नहीं जा सकता मुझे रक्षा विभाग में 030 वर्ष तक सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उक्त अवधि के दौरान मुझे अपने देश में अनेकों स्थानों पर जाने का अवसर मिला इनमें से एक स्थान है 'लेह' जो लद्दाख क्षेत्र का सबसे बड़ा शहर है। यहां पर अधि कतर जनसंख्या शिया मुस्लिम और तिब्बत बौद्धों की है। 


लेह में जाने का मुझे दो बार अवसर मिला पहली बार वर्ष 1989 में जब मैं राजौरी क्षेत्र में कार्यरत था। राजौरी से सड़क मार्ग द्वारा जम्मू, उधमपुर, पतनी टॉप, रामबाग, श्रीनगर, सोनमर्ग, जोजीला, कारगिल से होते हुए लेह पहुंचा । तीन दिन तक लेह रुकने के बाद सड़क मार्ग द्वारा लगभग 300 कि.मी. की दूरी पर भारत-चीन सीमा पर स्थित चुशूल वैली, दमचौक, फुक्जो, तारा पोस्ट नामक स्थानों पर जाने का मौका मिला । यह स्थान समुद्री सतह से लगभग 14300 फीट की ऊंचाई पर स्थित हैं और यहां पर कुछ जगहों का तापमान-45 डिग्री तक चला जाता है। इस दौरान मैं इन जगहों पर तीन महीने तक रुका । दूसरी बार वर्ष 2003 में मुझे दिल्ली से लेह हवाई मार्ग द्वारा जाने का अवसर मिला इस बार लगभग ढाई वर्ष तक मुझे यहां रुकने का मौका मिला जिसमें दो वर्ष 'लेह' शहर में और छ: महीने भारत-चीन सीमा पर स्थित ऊपर लिखे स्थानों पर रहने का मौका मिला यहां पर शीर्ष सर्दियों में समय गुजारा जब अधिकतर तापमान -45 डिग्री चला जाता है।


चुशूल वैली एक गांव है जो 'लेह' जिले में आता हैयहां से चारों ओर दूर-दूर तक ऊंचे-ऊंचे बर्फ से ढ़के नंगे पहाड़ नज़र आते हैं। कोई पेड़-पौधा नज़र नहीं आता । बर्फीले तूफान चलते हैं और हवा के थपेड़े पड़ते हैं। कोई इंसान मिले यह देखने को मन तड़प जाता है। कहीं-कहीं दूर-दराज पर कुछ लोग देखने को मिलते हैं जो इतनी कठिन परिस्थितियों में रहकर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। ये लोग पशमीना वाली भेड़ें पालकर अपना गुजारा करते हैं बर्फीले तूफानों और ऑक्सीजन की कमी का यहां पर डटकर मुकाबला करना पड़ता है।


इतना दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद यहां पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये कई स्थान हैं जिनमें से दो स्थानों का उल्लेख करने जा रहा हूं यह दोनों स्थान अत्यंत ही खूबसूरत हैं और दूर-दूर से पर्यटक इन्हें देखने के लिये जाते हैं। इनमें से एक स्थान है “पानकुंग सों" (पेग्गोंग) झील । यह स्थान लेह से लगभग 223 कि.मी. की दूरी पर स्थित है और समुद्री सतह से लगभग 14300 फीट की ऊंचाई पर स्थापित है।


“पानकुंग सों" झील की कुल लंबाई लगभग 134 कि.मी. है और चौड़ाई मुख्यतया 5 कि.मी. हैलगभग 54 कि.मी. झील का भाग भारत में है और 80 कि.मी. का भाग चीन देश में है। पर्यटकों के लिये यह स्थान मुख्य आकर्षण है। इस झील पर पहुंचने से लगभग 2 कि.मी. पहले ऐसा लगता है मानो धरती पर एक दूसरा गहरा नीला आसमान उतर आया हो । बहुत सारे खनिज पदार्थों का मिश्रण होने के कारण इस झील का पानी गहरे नीले रंग का है और खारा है। अगर रास्ते में किसी प्रकार की रुकावट न आये तो लेह से सड़क मार्ग द्वारा लगभग सात घंटों में यहां पहुंचा जा सकता है।


पर्यटकों के लिये और धर्म में आस्था रखने वालों के लिये लेह में दूसरा आकर्षक स्थान है 'पत्थर साहब" गरुद्वारा । यह पवित्र स्थान लेह से कारगिल की ओर लगभग 37 कि.मी. दूरी पर 'नीमू' नामक स्थान पर स्थापित हैइस स्थान का इतिहास श्री गुरु नानक देव जी के साथ जुड़ा है। समुद्री सतह से पत्थर साहब गुरुद्वारे की ऊंचाई लगभग 12000 फीट की है।


कहा जाता है कि 1515-1518 ईस्वी के बीच जब गुरु नानक देव जी सिक्किम, नेपाल और तिब्बत की यात्रा करते हुए वापिस पंजाब, श्रीनगर के रास्ते लौट रहे थे तो रास्ते में विश्राम करने के लिये इसी स्थान पर रुके थे। इस स्थान पर एक दुष्ट राक्षस रहा करता था जिसने यहां के लोगों पर बहुत अत्याचार किए और लोग इस राक्षस से डरते थेइस से तंग आकर यहां के सभी लोगों ने मिलकर भगवान से इस दुष्ट आत्मा से बचाने के लिये प्रार्थना की। उनकी करुणामयी पुकार गुरु नानक देव जी ने सुनी और लोगों को इस राक्षस दनिया भर में मशहर से छुटकारा दिलवाने के लिये यहां रुके।


एक दिन सुबह श्री गुरु नानक देव जी इस स्थान पर सर्वशक्तिमान परमेश्वर के ध्यान में लीन थे और पीछे एक ऊंची पहाड़ी से इस दुष्ट राक्षस ने इन्हें देखा और क्रोध में आकर श्री गुरु नानक देव जी को मारने के लिये उस ऊंची पहाड़ी से एक विशाल पत्थर धकेल दिया । यह सोच कर कि अब तो गुरु नानक देव मर गया होगा।


यह देखने के लिये उस ऊंची पहाड़ी से नीचे आया । पर जो सबको बचाने वाला हो उसे कौन मार सकता है। वो विशाल पत्थर जैसे ही श्री गुरु नानक देव जी के शरीर पर लगा तो वह नर्म मोम बन गयाजब वो राक्षस श्री गुरु नानक देव जी के समीप पहंचा तो उसने देखा कि श्री गुरु नानक देव जी ध्यान मग्न बैठे हैं और उस विशाल पत्थर में श्री गुरु नानक देव जी की पीठ और सिर की छाप पड़ी हुई है। यह देखकर राक्षस क्रोधित हो उठा और अपने दायें पांव से उस पत्थर को धकेलना चाहा परंतु उसका पांव उस पत्थर के अंदर ही धंस गया । यह देखकर वह हक्का-बक्का रह गया कि उसके पांव का निशान भी उस पत्थर पर अंकित हो गया है।


अब वो दुष्ट राक्षस अपने आपको बलहीन समझने लगा आर श्री गुरुनानक देव जी की ताकत को जानकर उनके चरणों में गिर गया और क्षमा याचना करने लगाइस पर श्री गुरु नानक देव जी ने उसे बुराई को छोड़ने के लिये नसीहत दी और एक अच्छा इंसान बनकर अपना जीवन व्यतीत करने की प्ररेणा दी। इस तरह श्री गुरु नानक देव जी के उपदेश से इस दुष्ट राक्षस का जीवन परिवर्तन हुआ। उसने अपनी सारी बुराइयां त्याग दी और लोगों की सेवा में लग गया।


यह विशाल पत्थर गुरुद्वारे में विराजमान है और इसे बड़ी दूर-दूर से गरुदारा पत्थर साहिब पर्यटक और श्रद्धालु देखने को आते हैं और अपना शीश झुकाते हैं। मुझे भी इस पावन स्थान के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और यह सब देखकर धन्य हो गया।


इस गुरुद्वारे के ठीक सामने वो ऊंची पहाड़ी है जहां से राक्षस ने पत्थर धकेला था उस पर निशान साहब झूलता है और लोग जाकर इस निशान साहब की परिक्रमा करते हैं और अपना शीश झुका कर धन्य हो जाते हैं । इस पावन गुरुद्वारे की देखरेख भारत की सेना के हाथ में है। यहां पर चौबीस घंटे लंगर चलता रहता है और श्री गरु ग्रन्थ साहब का पाठ-कीर्तन चलता रहता है। जीवन में मौका मिले तो इस पावन स्थान के दर्शन जरूर करने चाहिये।


स्रोत - समाचार भारती, समाचार सेवा प्रभाग, आकाशवाणी