पहाड़ी गांवों के लोकजीवन पर उपन्यास : मुक्तियात्रा

||पहाड़ी गांवों के लोकजीवन पर उपन्यास : मुक्तियात्रा||



स्व. नारायणदत्त सेमवाल द्वारा लिखित उपन्यास मुक्तियात्रा पहाड़ के एक गांव सोहना में जन्में शान्ताराम और उसकी पत्नी सोबती के कहानी है। समय है आजादी से पूर्व तीस और चालीस का दशक।
सोहना गांव में तुकाराम नाम के एक व्यक्ति हैं। उनके तीन लड़के और दो लड़कियां हैं। नाम क्रमशः चन्दाराम, शान्ताराम, गणेशी, माघी और विजयराम। शान्ताराम दूसरे नम्बर का लड़का है। वो दस रूपए महीने में विशनसिंह की गैंग में कुली हो जाता है। धीरे-धीरे उसने चिनाई का काम सीखा और कुशल राजमिस्त्री बन जाता है। मेहनती और ईमानदार है। सुबह-साम ओवरसेयर के घर में भी काम करता है इसलिए खाना-पीना वहां से निकल जाता। थोड़ा बहुत पैंसों की बचत हुई, ओवरसेयर से भी कर्जा लिया और बड़े भाई चन्दाराम की शादी कर दी। फिर बहिनो गणेशी और माघी की शादी हुई और फिर सबसे छोटे भाई विजयराम को गणेशी के ससुराल पढ़ने के लिए भेज दिया।


शान्ताराम के बड़े भाई चंदाराम की शादी में लड़की वालों को छः सात सौ रूपये खर्चा देने लिए साहूकार धनीराम से कर्जा लिया। शान्ताराम की भी शादी होती है। बड़े भाई चंदाराम के तो कोई बच्चे पैदा नहीं हुए पर शान्ता राम के सात बच्चे होते हैं। शान्ताराम की पत्नी सोवती ने शान्ताराम को समझाने की कोशिश की पर शान्ताराम ने बच्चे पैदा होने को भगवान की देन कह कर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
उपन्यास में आगे संयुक्त और बड़े परिवारों में होने वाली दिक्कतों के विवरण हैं। छोटे घरों में बड़े परिवार किन मुश्किलों का समना करते हैं ये सब है। बड़े भाई की चंदाराम की पत्नी संग्रामी ईष्यालु और बुरे स्वभाव की है जबकि शान्ताराम की पत्नी सोवती अच्छे स्वभाव की है। संग्रामी काम नहीं करती झगड़ती रहती थी। संग्रामी का पति अर्थात सबसे बड़ा भाई चंदाराम परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने से खुद को किनारा कर देता है।


सबसे छोटा भाई विजयराम पढ़ाई में अच्छा है। पांच पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसे देहरादून भेजा जाता है। वहां हॉस्टल में रहता है। उसका खर्चा शान्ताराम ही बहन करता है। शान्ताराम पर अर्थिक बोझ बढ़ जाता है। इस बोझ को बहन करने का शान्ताराम भरपूर कोशिश करता है। सुबह चार बजे उठ कर काम पर जाने से पहले जंगल से लकड़ी लाकर पास के कस्बे में चार आने में बेचता, दिन में गैंग में मजदूरी, खाली समय में ऊन कातता, स्वेटर बुनता, रस्सियां बट कर घर का खर्चा चलाता है।
विजयराम देहरादून में अच्छी पढ़ाई करता। कक्षा में प्रथम-द्वितीय आता है। इस बीच शान्ताराम के पिता तुकाराम की मृत्यु हो जाती है। मृत्यु संस्कार पर चालीस रूपए खर्च होते हैं उसके लिए भी कर्जा साहूकार धनीराम से लेना पड़ता है।


बड़ी बहू संग्रामी सास के रहते हुए भी रसोई और भोजन व्यवस्था पर अपना कब्जा कर देती है। अपनी देवरानी सोवती को खाने को मट्ठा और सवा (झंगोरा) देती है। खुद खीर खाती है और शान्ताराम के बच्चों को भूखा रखती है। कोई काम नहीं करती। उसके बच्चे नहीं हैं इसलिए कहती है कि जिसके स्याल की तरह बच्चे पैदा हुए हैं, वो करे काम, मेरा क्या है। बड़ा परिवार होने से शान्ताराम पर सारा आर्थिक बोझ आ जाता है। ऊपर से धनीराम का कर्जा चढ़ा है। धनीराम शान्ताराम पर पैंसा लौटाने का दबाव बनाने लगता है। बड़ा परिवार होने के कारण शान्ताराम पैसा नहीं लौटा पाता। इस बीच जिस गैंग में शान्ताराम राजमिस्त्री था उसके ओवरसेयर शिवकुमार का स्थानान्तरण हो जाता है। नया ओवरसेयर आता है और शान्ताराम की जगह गबरू को राजमिस्त्री बना देता है। शान्ताराम कुली बन जाता है। इससे शान्ताराम की तनख्वाह सोलह रूपए महीने से घट कर बारह रूपए महीने हो जाती है।


इसके बाद बरसात में सड़क पर काम करते हुए एक दिन भूस्खलन होता है और उसमें शान्ताराम का पैर टूट जाता है। शान्ताराम पैर के इलाज के लिए देहरादून पहुंचता है। वहां छोटा भाई विजयराम इलाज करवाता है। एक पैर काटना पड़ता है। दो महीने अस्पताल में रहने के बाद शान्ताराम को अस्पताल से छुट्टी मिल जाती है लेकिन अब वो अपंग हो जाता है और मेहनत मजदूरी करने के काबिल नहीं रहता है। कर्जा सर पर चढ़ा है ऊपर से परिवार के गुजर-बसर की जिम्मेदारी।


विजयराम अच्छे अंकों से हाईस्कूल उत्तरीर्ण करता है। नायब तहसीलदार के पद पर उसका चयन हो जाता है। देहरादून में ही नियुक्ति मिलती है और रेंजर के पद पर कार्यरत पूर्णानन्द सकलानी की बेटी सरला से उसका विवाह भी हो जाता है।


विजयराम घर की स्थतियों को सुलझाने में अपना सहयोग करना चाहता है लेकिन उसकी पत्नी सहयोग नहीं करती है इससे विजयराम और सरला के बीच अनबन रहती है। शान्ताराम के कर्जा न चुका पाने से धनीराम उस पर मुकदमा कर देता है। छः सौ सत्तर रूपए की डिक्री होती है। धनीराम की सात नाली जमीन कुड़क कर दी जाती है और उसे जमीन से बेदखल कर दिया जाता है। कुछ समय बाद शेष बची जमीन बरसात में मय फसल बाढ़ की चपेट में आ जाती है। अब शान्ताराम के पास न जमीन है और न वो मेहनत मजदूरी के लायख है। उसका परिवार दाने-दाने को मोहताज हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसकी पत्नी सोवती दूसरों के खेतों में काम करती है और अपंग शान्ताराम आसपास के गांवों में भिक्षाटन कर परिवार को जीवित रखने की कोशिश करता है।


विजयराम अपनी मां को देहरादून ले जाता है। उसका लड़का भी पैदा हो जाता है।
भुखमरी के बोझ को कम करने के लिए शान्ताराम अपने ग्यारह और तेरह साल के दो बच्चों आशा और दीनू को ननिहाल भेजता है लेकिन वहां मामी दुर्व्यवहार करती है। उन दोनो पर चोरी का आरोप लगाती है और उनको घर से निकाल देती है। वे दोनो भटकते हुए देहरादून चाचा विजयराम के यहां पहुंचते हैं। लेकिन वहां भी चाची उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करती, चोरी का आरोप लगाती है तो वे दोनो चुपचाप चाचा का घर छोड़ कर ऋषिकेश एक होटल में नौकरी करने लगते हैं। दो महीने नौकरी करने बाद गांव जाने के लिए छुट्टी और पैंसे मांगते हैं तो होटल मालिक भी उन पर चोरी का आरोपा लगा कर रात को बाहर निकाल देता है। जनवरी महीना था और रात को बाहर ठण्ड के कारण उनकी मौत हो जाती है।


उधर गांव में भूख और ठण्ड के कारण शान्ताराम के परिवार का बुरा हाल है। दाने-दाने के लिए तरस रहा है। बस एक आशा जीवित रहती है कि उनकी एक गाय और भैंस ब्याने वाली है। शान्ताराम की गाय और भैंस पर धनीराम की भी नजर है। शान्ताराम पर अभी सतासी रूपए की वसूली होनी थी। धनीराम मुकदमा कर देता है। एक सौ बारह रू. की डिक्री होती है। वसूली की कार्यवाही में गाय, भैंस, गोशाला कुड़क हो जाती है। बच्चे रोते बिलखते हैं। पत्नी सोवती विस्तर पकड़ लेती है। इसी बीच शान्ताराम को ऋषिकेश में हुए अपने दोनो बच्चों की मृत्यु की खबर मिलती है और वो गहरे दुख में डूब जाता है।


भूख और बीमारी के कारण शिवरात्रि के पहले दिन सोवती की मृत्यु हो जाती है लेकिन शान्ताराम किसी को नहीं बताता। उसी रात्रि को शान्ताराम अपने बच्चों को मीठे की जड़ी पिलाता है, खुद भी पीता है और सारा परिवार खत्म हो जाता है।


देहरादून में विजयराम तहसीलदार के पद पर पदोन्नत हो जाता है। गांव से सबसे बड़ा भाई चंदाराम देहरादून पहुंच कर सारा वृतान्त सुनाता है। विजयराम बहुत दुखी होता है। उसकी मां खाना-पीना छोड़ देती है और एक महीने बाद मां की भी मृत्यु हो जाती है।


इन सब कष्टों से विजयराम के मन में वैराग्य पैदा होता है और वह नौकरी से स्तीफा दे देता है और घर छोड़कर साधु बन जाता है।


यह है मुक्ति यात्रा उपन्यास का मुख्य कथानक। लेकिन इसके साथ ही कई छोटी-छोटी घटनाएं भी इसमें बड़ी कुशलता से पिरोई गई हैं। जैसे कि देहरादून में विजयराम और गौरी के प्रेम का प्रसंग। विजयराम का अपने दोस्त जगदम्बा प्रदास के घर आना-जाना है। जगदम्बा के मां बाप विजय को बहुत पसंद करते हैं। वे अपनी बेटी गौरी की शादी विजय राम से करना चाहते हैं। इस बात का पता विजयराम और गौरी दोनो को चल जाता है और वे मन ही मन इसके लिए तैयार भी रहते हैं। लेकिन बाद में विजयराम के परिवार पर आने वाले संकट, भाई की विकलांगता और परिवार की गरीबी के कारण गौरी के मां-बाप इरादा बदल देते हैं और गौरी की शादी सतीश से होती है। सतीश धनी बाप का बेटा है। उसमें कई ऐब हैं। वो इलाहाबाद में किसी क्रिश्चियन लड़की से प्यार करता था। बाद में वो उस लड़़की से शादी कर देता है और अपना धर्म भी बदल देता है इससे गौरी आहत होती है और लम्बा सुसाइट नोट छोड़कर आत्महत्या कर देती है।


उपन्यास में लगभग तीस के दशक के पहाड़ी समाज की स्थितियां दर्ज हैं। उस दौर की गरीबी, भुखमरी के विवरण हैं। तत्कालीन सामाजिक स्थितियों का प्रतिविम्ब भी बड़ी स्पष्टता के साथ हमें इस उपन्यास में मिलता है। जैसे कि उन दिनो विवाह के लिए किस प्रकार से लड़के वाले लड़की वालों को खर्च देते थे, लड़की के विवाह से प्राप्त रकम से लकड़े की शादी करते। अच्छा खर्च मिलने के लालच में लड़कियां धनी उम्रदराज लोगों को ब्याह दी जाती थी।


पहाड़ी साहूकार के शोषण का बहुत महत्पूर्ण चित्रण भी इस उपन्यास में है। अब तक हम प्रेमचंद की रचनाओं में इस प्रकार के शोषण की कथा पढ़ते रहे। प्रायः हम पहाड़ों में साहूकारों के शोषण से अनविज्ञ रहे हैं। लेकिन इस उपन्यास में साहूकार के शोषण को महत्व के साथ उकेरा गया है। किस प्रकार साहूकार एक आना प्रति रूपया गांठखुलाई लेकर एक आना टिकट पर ऋणी से 'इन्दू तलफ परमेश्वरी नोट' अपने पक्ष में लिखा लेते थे। आर्थात् एक सौ रूपये कर्ज पर छः रूपया चार आना गंठखुलाई काटकर सौ रूपये का प्रोनोट लिखवाते थे। तीन साल में पच्चीस प्रतिशत वार्षिक चक्रवृद्धि ब्याज की दर से ऋण की राशि एक सौ अस्सी रूपये पांच आने हो जाती थी। ऋणी को जन्मभर साहूकार के ब्याज से छुटकारा नहीं मिल पाता था।


यह उपन्यास एक सिद्धहस्त लेखक द्वारा लिखा हुआ कम उस सच को भोगने वाले आम आदमी द्वारा लिखा हुआ ज्यादा प्रतीत होता है। उपन्यास के ब्यौरे बहुत विश्वश्नीय लगते हैं। उपन्यास में व्यक्त विचार आम आदमी के विचार हैं। आजादी के पूर्व के उस दौर में एक गरीब व्यक्ति अपने जीवन के लिए क्या-क्या संघर्ष करता है ये इस रचना का मूल कथ्य है। भूख और ठण्ड से होने वाली मौतें सिर्फ खबर के रूप में नहीं पूरे विवरण और संवेदनशीलता के साथ इस कहानी में पिरोई गई हैं। उसके पीछे की सच्चाईयों और मनोदशाओं का बारीकी से चित्रण मिलता है।


उपन्यास मुक्ति यात्रा रोचक है। गजब की पठनीयता है। पूरा उपन्यास एक लोककथा या आम आदमी द्वारा सुनये गये किसी किस्से का सा आभास देता है। इस कथा में प्रारब्ध को अटल और बलवान माना गया है। भाग्य की विडम्बना दिखाई गई है या कहें इंसानी जीवन की तमाम विडम्बनाओं के पीछे भाग्य को ही कारण माना गया है। गरीबी और संकटों का मुख्य कारण बड़े परिवार और अधिक जनसंख्या को माना गया है।
उपन्यास में बहुत साधापन और साफगोई है। असाधारण किस्म की साधारणता है। कुछ भी पोलिस्ड नहीं। शिल्प का कोई बोझ नहीं भाषा का कोई चमत्कार नहीं। कहीं भी रचनाकार अपनी उपस्थिति से कथा को तोड़ता-मरोड़ता नहीं दिखता। पूरी कथा खुद-ब-खुद बहती चली जाती है। इस रचना के मार्फत आम आदमी, बहुसंख्यक समाज, कृषक-मजदूर वर्ग के विचारों, मान्यताओं और दर्शन से पाठक परिचित होता है। इसमें किसी भी प्रकार के किसी आदर्श या विचारों की स्थापना की छटपटाहट या प्रयास नहीं दिखते न इसकी मंशा कहीं नजर आती है। पूर्व प्रचलित सामाजिक धारणाओं के आलोक में ही पूरी कथा आगे बढ़ती है। तत्कालीन पहाड़ी ग्रामीण समाज की मान्यताओं, आस्था, विश्वास, अंधविश्वासों का पाठकों को संज्ञान देती है।
आज तो काफी कुछ लिखा जा रहा है लेकिन आजादी से पहले के पहाड़ी गांवों की सामाजिक, आर्थिक स्थितियों के विवरण कथा साहित्य में नहीं मिलते। गरीबी, अकाल, भुखमरी और साहूकार के शोषण के किस्से तो सुनने में आते थे लेकिन रचनाओं में लिखित रूप में कहीं दर्ज नहीं मिलते। प्रतिकूल भौगोलिक स्थितियों के कारण उत्पन्न मनुष्य के कष्टों का चिह्नांकन भी कहीं नहीं दिखता। समीक्ष्य उपन्यास में गरीबी, भुखमरी के साथ ही कपड़ों का अभाव और ठण्ड मार भी विश्वश्नीय तरीके से आयी है।


तत्कालीन समाज में आजीविका के लिए किए जाने वाले क्रियाकलाप और उनकी स्थितियां भी इस उपन्यास में दर्ज हैं। खेती, पशुपालन और स्थानीय स्तर पर थोड़-बहुत मजदूरी, जीवन के लिए यही तीन महत्वपूर्ण सहारे उस दौर के थे। चौथा विकल्प था पलायन। अतिरिक्त आय सर्जग गतिविधि के रूप में ईंधन के लिए लकड़ी बेचना, स्वेटर बुनना, कपड़े सिलना, रस्सी आदि बनाना शामिल हैं। तत्कालीन समाज में आय सृजन के बहुत अधिक विकल्प नहीं थे यह इस उपन्यास में प्रमाणिक तौर पर आया है।
इस रचना को हम एक महत्पूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में भी देख सकते हैं। जिसमें कि अपने दौर की कुछ महत्वपूर्ण सामाजिक, आर्थिक स्थितियां और जानकारियां दर्ज हैं। यह लेखक द्वारा लिखे गए उपन्यास से अधिक सीधे उस आदमी से प्राप्त कथा लगती है जो उसका चश्मदीद रहा है और जिसने उसको भोगा है।


बेशक इस उपन्यास के वैचारिक धरातल और स्थापनाओं से असहमत हुआ जा सकता है। मनुष्य के जीवन में आने वाली प्रतिकूलताओं और विडम्बनाओं के पीछे इस उपन्यास में जिन कारणों को जिम्मेदार माना गया है इसको लेकर हमारी जुदा राय हो सकती है। लेकिन अपने दौर की जिस सच्चाई से ये रचना हमें रू-ब-रू करवाती है वो अपने अतीत को देखने के हमारे नजरिये की एक बार पुनः समीक्षा करने की चुनौती देता है। जो सच इस रचना में उद्घाटित हुआ है उससे हम किनारा नहीं कर सकते, उसे नकार नहीं सकते हैं। हिंदी कथा साहित्य अथवा कथेत्तर साहित्य में इस भौगोलिक क्षेत्र की आजादी के पहले की सामाजिक आर्थिक स्थितियों के दर्शन नहीं होते हैं। उस दौर में यहां के सैनिकों की वीरगाथाएं, आजादी के आन्दोलन, राजशाही के विवरण तो किसी न किसी रूप में आए हैं लेकिन लोकजीवन, समाज, कृषि, आर्थिक क्रियाकलाप और उसकी दुश्वारियां साहित्य में कम ही स्थान पा सकी हैं। अंग्रेज तथा दूसरे साहित्यकारों ने जो लिखा वो ऐतिहासिक, राजनैतिक, प्रशासनिक और सूचनात्मक ज्यादा है। इस क्षेत्र को लेकर देवभूमि, हिमालय, पर्यटन और आध्यात्मिक क्षेत्र के रूप में देखने की दृष्टि ज्यादा बलवती रही है। यहां रोजमर्रा के जीवन के लिए संघर्ष कर रहा एक समाज भी निवास करता है यह दृष्टि उस दौर के लेखन में लगभग नदारद मिलती है। एक कठिन भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले कृषक और मजदूर वर्ग की तत्कालीन स्थितियों का जो जायजा हमें इस रचना में मिलता है, वो काबिले गौर है और शायद यही इस रचना की सबसे बड़ी सफलता है।


उपन्यास का नम : मुक्तियात्रा
लेखक : नारायण दत्त सेमवाल
पृ.सं.116, मूल्य : रू0 110.00
प्रकाशक एवं मुद्रक : समय साक्ष्य, 15 फालतू लाइन, देहरादून
समीक्षक : डॉ. नंद किशोर हटवाल