रिस्पना के बहाने भगीरथ बनने की पेशकश

||रिस्पना के बहाने भगीरथ बनने की पेशकश||


दुनियां में नदियों को लेकर गौमुख से बहने वाली गंगा-भागीरथ नदी का इतिहास है कि वे राजा भगीरथ के तप के कारण स्वर्ग से धरती पर उतरी है। इसके बाद लंदन की टेम्स नदी का इतिहास इस मायने में जुड़ जाता है कि जो नदी एकदम मैली, सूखती हुई मरणासन्न में थी वह वहां के लोगो और सरकारो ने पुनर्जीवित ही नहीं कर डाली बल्कि आज वह टेम्स नदी, दुनियां में नदी संरक्षण को लेकर एक मिशाल बनी हुई है। हालांकि यही हालात मौजूदा वक्त सभी नदियों की है। परन्तु उत्तराखण्ड की अस्थाई राजधानी देहरादून में बहने वाली रिस्पना नदी की हालात बद से बदस्तूर हो चुकी है। टेम्स नदी जैसी स्थिति में रिस्पना नदी कब आये ऐसा कहना अभी जल्दीबाजी ही होगा। मगर उत्तराखण्ड राज्य की अस्थाई राजधानी देहरादून की रिस्पना नदी के संरक्षण को लेकर मौजूदा मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत की कुलबुलाहट अब दिखने लग रही है कि रिस्पना नदी को पुनर्जीवित ही नहीं करेंगे बल्कि वे इस नदी के पुराने सौन्दर्य को लौटाने का भरसक प्रयास करेंगे।   


उल्लेखनीय हो कि सरकार या मुख्यमंत्री वे सिर्फ किसी विशेष उपलब्धि के लिये ही याद किये जाते हैं। ऐसी उपलब्धि को उत्तराखण्ड के मौजूदा मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत रिस्पना नदी को लेकर अपने साथ जोड़ना चाहते है। संभवतः इसलिये सरकार और उसके मुख्यमंत्री अक्सर बड़े ''संकल्प'' लेते हैं, घोषणाएं करते हैं। लेकिन इतिहास वही बनाते हैं जो संकल्प सिद्ध करते हैं। अब बारी त्रिवेन्द्र सिंह की है, अक्सर सरकारों के संकल्प उनकी सियासी मजबूरी ही होती हैं। लेकिन उत्तराखण्ड की सरकार इस बार एक ऐसा ''संकल्प'' कर बैठी है जो सियासी ''मजबूरी'' तो बिल्कुल नहीं है।


फिलवक्त यह संकल्प है अस्थायी राजधानी देहरादून में रिस्पना नदी को वापस ''ऋषिपर्णा'' बनाने का। कहना भले ही आसान हो लेकिन दून की रिस्पना और अल्मोड़ा की कोसी को पुनर्जीवन देने का ''संकल्प'' कोई मामूली संकल्प नहीं। दून में रिस्पना को पुनर्जीवन का मतलब एक नदी ही पुनर्जीवित नहीं होगी, इससे पुनर्जीवित होगी एक सभ्यता, एक संस्कृति, एक विरासत। पुनर्जीवित होगा एक शहर और स्थापित होंगी नयी परंपराएं, क्योंकि मानव सभ्यताओं और नदियों का पुराना रिश्ता जो रहा है। सिर्फ रिस्पना ही क्यों रिस्पना के साथ बिंदाल, सुसवा, सौंग, तमसा, टौंस, दुल्हनी, चंद्रभागा आदि को भी तो जीवन मिलेगा। रिस्पना और बिंदाल का महति जिक्र इसलिए क्योंकि आज देहरादून बसता ही नाले में तब्दील हो चुकी इन दो नदियों के बीच है। आज अतिक्रमण और प्रदूषण इन्हें लील चुका है, ये दोनो नदियां तो गंगा की भी गुनहगार हैं। 


कल्पना कीजिये कि आने वाले समय में रिस्पना ऋषिपर्णा में तब्दील होकर सदानीरा हो जाएगी, तो नदी का जो शोर आज सिर्फ मकड़ैत और शिखर फाल में ही सुनाई देता है वो काठबंगला, बाडी गार्ड, आर्यनगर, राजीव नगर, भगत सिंह कालोनी से लेकर मोथरोवाला तक सुनायी देगा। ये वो क्षेत्र हैं जहां आज रिस्पना एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है। रिस्पना के पुनर्जीवित होने पर यहां गंदी बस्तियां नहीं होंगी, दुर्गंध नहीं होगी, उसमें जगह जगह गिरती गंदगी नहीं होगी। तब यहां सुंदर हरे भरे तट होंगे, पक्षियों का कलरव होगा, छोटे चैक डेम होंगे, सुंदर घाट होंगे और भी बहुत कुछ ऐसा होगा जो कल्पना से परे हो। निसंदेह रिस्पना का उद्धार होगा तो बिंदाल को भी जीवन मिलेगा। बिंदाल और रिस्पना को पुनर्जीवन का अर्थ है देहरादून को नया जीवन मिलना। रिस्पना के पुनर्जीवन के साथ ही एक बिखरा हुआ अव्यवस्थित सा शहर काफी हद तक व्यवस्थित हो जाएगा, तमाम बड़ी समस्याओं को हल मिलेगा। इतिहास गवाह है की रिस्पना और बिंदाल दून की दो जीवन रेखाएं रही हैं, इन्हीं नदियों के कारण कभी देहरादून बसा भी होगा।


रिस्पना और बिंदाल जीवित होंगी तो सुसवा नदी के दिन भी बहुरेंगे। सुसवा में ''साग'' भी लौटेगा और मछलियां भी। सुसवा आज इस कदर प्रदूषित है कि किसान उसका पानी खेत में नहीं डालते। यह पूरी नदी विषैली हो चुकी है, जिस नदी क्षेत्र में होने वाली घास भी स्वादिष्ट ''साग'' हुआ करता थी, वहां होने वाली घास आज पशु भी नहीं खाते। नदी क्षेत्र में रहने वाले लोग गंभीर बिमारियों के शिकार हो रहे हैं। रिस्पना और बिंदाल के संगम से बनी यही सुसवा नदी आगे सौंग में मिलकर गंगा को भी प्रदूषित कर रही है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि रिस्पना का पुनर्जीवन कितना अहम है, त्रिवेंद्र सिंह रावत सौभाग्यशाली हैं कि सत्ता संभालते ही उन्हें गायत्री और प्रधानमन्त्री की मन की बात ने एक मकसद दिया है। आज उनके पास अवसर है ,पर्याप्त समय भी है और मजबूत जनादेश भी। एकमात्र सवाल संसाधनों का है तो सरकार के लिये यह कोई बड़ी बात नहीं, बशर्ते इरादा हो, मजबूत इच्छा शक्ति हो तो लंदन की टेम्स नदी के जैसे रिस्पना नदी के दिन बहुर सकते हैं। हालांकि जो पहल मुख्यमंत्री ने शुरू की है उसे अंजाम तक पहुंचाना इतना आसान भी नहीं है।


सच तो यह है कि एक मुहाने पर संकल्प लेने भर से रिस्पना को पुनर्जीवन नहीं मिलने वाला। संकल्प सिद्ध करने के लिये मुख्यमंत्री को खुद मैदान में डटकर मोर्चा लेना होगा, एकमात्र इस संकल्प को ही सर्वोच्च प्राथमिकता में रखना होगा। आमजन को इसके लिये जागरुक कर विश्वास में लेना होगा, तथा दूसरी ओर कुछ कड़े फैसले भी लेने होंगे। उन्हें वोट बैंक की सियासत और नफा नुकसान से ऊपर उठने का दम भी दिखाना होगा। रिस्पना की बदहाली के जिम्मेदारों को भी बेनकाब करना होगा, रिवर फ्रंट डवलपमेंट जैसी योजना को रोककर नए सिरे से वृहद योजना तैयार करानी होगी। यह योजना तो जहां नदी क्षेत्र कब्जे से बचा है, वहां भी रिस्पना को नाले में तब्दील कर रही है। मुख्यमंत्री के लिये यह बहुत आसान नहीं बल्कि बेहद चुनौतीपूर्ण है। यह कटु सत्य है कि रिस्पना की बदहाली तो बीते डेढ दशक में ज्यादा हुई है। इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि राज्य की सर्वोच्च संस्था जहां विधान बनता है, आज वह भी रिस्पना नदी में ही है। राज्य बनने के बाद तो इस पर बेतहाशा कब्जे हुए, उच्च न्यायालय के आदेश तक ताक पर रख दिये गए।


दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि रिस्पना को रौंदने वाले उस पर बस्तियां बसाने वाले उसी के दम पर विधान सभा में पहुंच रहे हैं, सरकार का हिस्सा बन रहे हैं। त्रिवेंद्र जी मजबूत इरादों के साथ आगे बढ़िये, डटकर पूरी ताकत के साथ इस संकल्प को सिद्ध कराइये। चार साल से भी अधिक समय है आपके पास, इस संकल्प की सिद्धि के लिये पर्याप्त समय है यह। छोड़ियें और सब चिंताएं, एकमात्र यह कामयाबी आपकी हर नाकामी पर भारी पडेंगी। यहां भी नाकाम रहे तो इतिहास माफ भी नहीं करेगा। एकमात्र यही संकल्प आपको एक कामयाब मुख्यमंत्री साबित करने के लिए काफी है, यह संकल्प सिद्ध हुआ तो जब इतिहास लिखा जायेगा निसंदेह आप ही ''ऋषिपर्णा के भगीरथ'' कहलायेंगे।