||संविधान में राजभाषा 'हिंदी' पर चर्चा||
14 सितम्बर 1949 को हिंदी देश की राजभाषा बनी। राजभाषा हिंदी को संविधान में राजभाषा का दर्जा देने के लिए संविधान सभा की बैठकों में हिंदी पर हुए विमर्श का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:--
14 सितम्बर, 1946 को संविधान सभा की नियम ITसमिति ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में यह निर्णय किया कि संविधान सभा का कामकाज हिन्दुस्तानी या अंग्रेजी में किया जाना चाहिए और अध्यक्ष की अनुमति से कोई भी सदस्य सदन में अपनी मातृभाषा में भाषण देसकेगा। संघ संविधान समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि संघ की संसद की भाषा हिन्दुस्तानी और अंग्रेजी होगी और सदस्यों को अपनी मातृभाषा का प्रयोग करने की छूट होगी। प्रान्तीय संविधान समिति ने यह सिफारिश की कि प्रान्तीय विधानमण्डलों में कामकाज प्रान्त की भाषा में किया जाएगा अथवा हिन्दुस्तानी या अंग्रेजी में।
14 जुलाई, 1947 को जब संविधान सभा का सत्र प्रारंभ हुआ तब सत्र के दूसरे ही दिन यह संशोधन प्रस्तुत किया गया कि 'हिन्दुस्तानी' के स्थान पर 'हिंदी' शब्द रखा जाए। 16 जुलाई को ही संविधान सभा और कांग्रेस पार्टी में इस विषय पर विचार-विमर्श शुरू हुआ। विचार-विमर्श के दौरान नेता एक ओर थे और साधारण सदस्य दूरी ओर इस मतदान में हिंदी के पक्ष में 63 वोट थे और हिन्दुस्तानी के पक्ष में 32, इसी प्रकार एक दूसरे मतदान में देवनागरी के पक्ष में 63 वोट और विपक्ष में 18 थे। दूसरे दिन संविधान सभा की बैठक में सरदार पटेल ने यह अनुरोध किया कि प्रांतीय विधानमंडलों की भाषा के प्रश्न को अभी न लिया जाए। 5 अगस्त, 1949 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने विभागीय क्षेत्रों के बारे में एक संकल्प तैयार किया।
8 अगस्त को जब संविधान सभा का अधिवेशन प्रांरभ हुआ तो उस दिन के परिपत्र में संविधान के प्रारूप संबंधी उपबंधों पर अनेक संशोधन थे। एक संशोधन पर 82 सदस्यों के हस्ताक्षर थे। इनमें से पहला नाम आचार्य जुगलकिशोर का था जो 1948 में कांग्रेस के महामंत्री थे। अनेक हस्ताक्षरकर्ता दक्षिण भारत के थे। 9 अगस्त, 1948 को कुछ सदस्यों ने इन संशोधनों का विरोध किया और अपराह्न में सभाई में कांग्रेस पार्टी की बैठक में इसका विरोध किया।
विरोध इस बात पर था कि अंग्रेजी राजभाषा के रूप में 15 वर्ष तक चले । जहां तक हिंदी के संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किये जाने की बात है, मीटिंग में इस बारे में कोई मतभेद नहीं था सदस्यों में अगर मतभेद था तो वह इस बात पर कि हिंदी का स्वरुप क्या हो अर्थात् उसमें शब्द अरबी फारसी के लिए जाएं या संस् त के । समस्या का हल निकालने के लिए एक समिति का गठन किया गया, जिसके सदस्य थे, श्री गोपालस्वामी आयंगर, श्री टी.टी. ष्णामाचारी, श्री ए.के. आयंगर, श्री के. एम. मुंशी, श्री भीमराव अम्बेडकर, श्री सआदुल्ला, श्री एम.एल. राव, मौलाना अबुल कलाम आजाद, पंडित गोविन्द वल्लभ पंत, राजर्षि पुरूषोत्तमदास टंडन, श्री बाल कृष्ण शर्मा नवीन, श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी और श्री के. सन्थानम्।
हिंदी को राजभाषा के रूप में शीघ्र प्रतिष्ठित करने के लिए 82 सदस्यों के हस्ताक्षर थे। जो संशोधन पेश किया गया था उसके जवाब में 15 वर्ष तक अंग्रेजी को चालू रखने के लिए 44 सदस्यों के हस्ताक्षर से एक अन्य संशोधन पेश किया गया, जिसमें सबसे पहला नाम श्री के. सन्थानम् का था और अन्य हस्ताक्षरकर्त्ताओं में मुख्य थे, श्री कृष्णामाचारी, श्रीमती दुर्गा बाई, श्री ए.के. अय्यर और श्री अनन्तशयनम् आयंगर ।
जहां तक हिंदी को स्वीकार किए जाने की बात है, दोनों ही पक्षों में इसके बारे में कोई असहमति नहीं थी। मत-भिन्नता केवल इस बात पर थी कि अंग्रेजी कब तक चलती रहे। इसी संशोधन में 10 अगस्त को यह प्रस्ताव रखा गया कि राज्य के शासकीय प्रयोजन के लिए अरबी अंकों का प्रयोग किया जाए। 10 से 17 अगस्त तक भाषा के विषय में सभाई पार्टी में गरमागरम बहस चलती रही। 16 अगस्त को विशेष समिति ने अपनी रिपोर्ट पेश कीइस रिपोर्ट में अरबी अंकों के स्थान पर 'अंतर्राष्ट्रीय अंक' शब्द का प्रयोग किया गया । 22 अगस्त को डॉ. अम्बेडकर ने समझौते के रूप में एक प्रस्ताव पेश किया। इसके बाद 10 दिनों तक अंकों और 15 वर्ष की अंतरिम अवधि के बारे में संविधान सभाई पार्टी में बहस चली। इस बहस के दौरान जो विचार सामने आए उन्हें ध्यान में रखते हुए संविधान के उपबन्धों को जो रूप दिया गया है उसे मुंशी आयंगर सूत्र कहते हैं।
2 सितम्बर की शाम को मुंशी आयंगर सूत्र पर विचार-विमर्श आरंभ हुआ। अध्यक्षता डॉ. पट्टाभि सीतारमैया कर रहे थेयहां जो भी मुख्य बहस थी वह तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय अंकों को लेकर थी और कोई भी निर्णय नहीं हो सका । परिणामस्वरूप संसदीय कांग्रेस पार्टी में सहमति के अभाव में भाषा-विवाद संविधान में उसी रूप में प्रस्तुत किया गया और कोई विप जारी नहीं किया गया2 सितम्बर की बैठक के बाद भी हिंदी के मामले में समझौता ढूढने का प्रयास जारी रहा। सविधान सभा में भाषा संबंधी उपबंधों पर 12 सितम्बर को विचार प्रारंभ होना था10 सितम्बर के संविधान सभा के परिपत्र में भाषा संबंधी जो संशोधन थे वे 45 पृष्ठों में छपे थे। यह उल्लेखनीय है कि डॉ. अम्बेडकर और श्री ष्णामाचारी सहित 28 सदस्यों ने एक संशोधन पेश करके यह मांग की कि संस् त को राजभाषा बनाया जाये ।
12 सितम्बर को बहस प्रारंभ होते ही डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सदस्यों से यह अनुरोध किया कि वे सयंत भाषा का प्रयोग करें और ऐसा कुछ न कहें जिससे दूसरों की भावना को ठेस पहुंचे। इसके बाद भी श्री गोपालस्वामी आयंगर ने मुंशी आयंगर सूत्र पर आधारित उपबंध पुनः स्थापित किए । सेठ गोविन्ददास ने इसका विरोध किया उसी दिन शाम को राजर्षि टंडन, पं. रविशंकर शुक्ल, सेठ गोविन्द दास आदि ने कुछ और संशोधन तैयार किए। 13 तारीख की बहस में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी तथा पंडित जवाहल लाल नेहरू ने भाग लिया । तीसरे दिन की बहस में डॉ. रघुबीर, डॉ. राजर्षि टंडन, मौलाना आजाद और शंकरराव देव आदि ने अपने विचार व्यक्त किए।
14 सितम्बर, को 1 बजे बैठक स्थगित हुई। इसी दिन अपराह्न में इस विषय पर अंतिम फैसला होना थाकिंतु विचार-विमर्श से समझौते की कोई शक्ल उभरती नजर नहीं आ रही थी3 बजे संविधान सभाई पार्टी ने समझौते के प्रयास में बैठक आरंभ की। इसकी अध्यक्षता पट्टाभिसीता रैमया ने की। विधानसभा का सत्र 5 बजे प्रारंभ होना था और तभी सदस्यों में कुछ सहमति हुईवे संविधान सभा में प्रविष्ट हुए उन्होंने अध्यक्ष से अनुरोध किया कि वे उन्हें ब्यौरे की बातों को हल करने के लिए एक घंटे का समय और दें। 6 बजे तक सभी पहलुओं पर विचार कर मुंशी आयंगर सूत्र में सुधार कर दिया गया और सभी सदस्यों ने मुक्ति की सांस ली।
संविधान सभा और हिंदी की चर्चा की समाप्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि हम संविधान सभा के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के विचारों से अवगत न हों। ऊपर दो बातें आई हैं इससे यह स्पष्ट है कि भाषा का प्रश्न बड़ा ही आवश्यक प्रश्न था जिस पर संविधान सभा ने 12, 13 और 14 सितम्बर, 1949 को गंभीरता से बहस की। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अंत में जो भाषण दिया उसे यथावत भारतीय संविधान सभा की सरकारी रिपोर्ट के हिंदी संस्करण से उद्धृत किया जा रहा है।
"अब आज की कार्रवाई समाप्त होती है, किंतु सदन को स्थगित करने से पूर्व मैं बधाई के रूप में कुछ शब्द कहना चाहता हूं –मेरे विचार में हमने अपने संविधान में एक ध्याय स्वीकार किया है जिसका देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। हमारे इतिहास में अब तक कभी भी एक भाषा को शासन और प्रशासन की भाषा के रूप में मान्यता नहीं मिली थी। हमारा धार्मिक साहित्य और प्रकाश संस् त में सन्निहित था। निःसंदेह उसका समस्त देश में अध्ययन किया जाता था, किंतु वह भाषा भी कभी समूचे देश के प्रशासनीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होती थीआज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा रखी है जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी और उस भाषा का विकास समय की परिस्थितियों के अनुसार ही करना होगा।
मैं हिंदी का या किसी अन्य भाषा का विद्वान होने का दावा नहीं करता । मेरा यह दावा नहीं है कि किसी भाषा में मेरा कुछ अंशदान हैकिंतु सामान्य व्यक्ति के समान मैं कह सकता हूं कि आज यह कहना संभव नहीं है कि भविष्य में हमारी उस भाषा का क्या रूप होगा जिसे आज हमने संघ के प्रशासन की भाषा स्वीकार किया है। हिंदी में विगत में कई-कई बार परिवर्तन हुए हैं और आज उसकी कई शैलियां हैं। पहले हमारा बहुत सा साहित्य ब्रज भाषा में लिखा गया था अब हिंदी में खड़ी बोली का प्रचलन है। मेरे विचार में देश की अन्य भाषाओं के संपर्क से उसका और भी विकास होगा। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदी देश की अन्य भाषाओं से अच्छी-अच्छी बातें ग्रहण करेगी तो उससे उन्नति होगी।
हमने अब देश का राजनीतिक एकीकरण कर लिया है। अब हम एक दूसरा जोड लगा रहे हैं जिससे हम सब एक सिरे से दूसरे सिरे तक एक हो जायेंगे और जो मतदान में हार भी गए हैं वे भी इस पर बुरा नहीं मानेंगे तथा उस कार्य में सहायता देंगे जो संविधान के कारण संघ को भाषा के विषय में अब करना पड़ेगा।
मैं दक्षिण भारत के विषय में एक शब्द कहना चाहता हं 1917 में जब महात्मा गांधी चंपारण में थे और मुझे उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हआ था तब उन्होंने दक्षिण में हिंदी प्रचार का कार्य आरंभ करने का विचार किया और उनके कहने पर स्वामी सत्यदेव और गांधी जी के प्रिय पुत्र देवदास गांधी ने वहां जाकर यह कार्य आरंभ किया। बाद में 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में इस प्रचार कार्य को सम्मेलन का मुख्य कार्य स्वीकार किया गया और वहां कार्य चलता रहा। मेरा सौभाग्य है कि मैं गत 32 वर्षों से इस कार्य से संबद्ध रहा हूं-- यद्यपि मैं यह घनिष्ठ संबंध का दावा नहीं कर सकता । मैं दक्षिण में एक सिरे से दूसरे सिरे को गया और मेरे हृदय में बहुत प्रसन्नता हुई कि दक्षिण के लोगों ने भाषा के संबंध में महात्मा गांधी के अनुरोध अनुसार कैसा अच्छा कार्य किया है । मैं जानता हूं कि उन्हें कितनी ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। किंतु उन्हें इस मामले में जो जोश था वह बहुत सराहनीय था।
मैंने कई बार पारितोषिक वितरण भी किया है और सदस्यों को यह सुनकर मनोरंजन होगा कि मैंने एक ही समय पर दो-दो पीढ़ियों को पारितोषिक दिए हैं, शायद तीन को ही दिए हों- अर्थात् दादा, पिता और पुत्र । हिंदी पढ़कर, परीक्षा पास करके एक ही वर्ष पारितोषिकों तथा प्रमाण-पत्रों के लिए आए थे। यह कार्य चलता रहा है और दक्षिण के लोगों ने इसे अपनाया हैआज मैं कह नहीं सकता कि वे इस हिंदी कार्य के लिए कितने लाख व्यय कर रहे हैं और मुझे याद नहीं है कि प्रतिवर्ष कितने परीक्षार्थी परीक्षाओं में बैठते हैं। इसका अर्थ यह है कि इस भाषा को दक्षिण के बहुत से लोगों ने अखिल भारतीय भाषा मान लिया है और इसमें उन्होंने जिस जोश का प्रदर्शन किया है उसके लिए उत्तर भारतीयों को बधाई देनी चाहिए, मान्यता देनी चाहिए और धन्यवाद देना चाहिए।
यदि आज उन्होंने किसी विशेष बात पर हठ किया है तो हमें याद रखना चाहिये कि आखिर यदि हिंदी को उन्हें स्वीकार करना है तो वे ही करेंगे, उनकी ओर से हम तो नहीं करेंगे और आखिर यह क्या बात है जिस पर इतना वाद-विवाद हो गया है। मैं आश्चर्य कर रहा था कि हमें छोटे से मामले पर इतनी बहस करने की, इतना समय बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है? आखिर अंक हैं क्या? दस ही तो हैं इन दस में, मुझे याद पड़ता है कि तीन तो ऐसे हैं जो अंग्रेजी में और हिंदी में एक से हैं-2, 3 और 0 मेरे ख्याल से चार और हैं जो रूप में एक से हैं किंतु उनमें अलग-अलग अर्थ निकालते हैं उदाहरण के लिये हिंदी का 4 अंग्रेजी के 8 से बहुत मिलता-जुलता है, यद्यपि एक 4 के लिए आता है और दूसरा 8 के लिएअंग्रेजी का 6 हिंदी के 7 से बहुत मिलता है, यद्यपि उन दोनों के भिन्न-भिन्न अर्थ हैंहिंदी का 9 जिस रूप में अब लिखा जाता है मराठी से लिया गया है और अंग्रेजी के 9 से बहुत मिलता है। अब केवल दो-तीन अंक बच गए जिनके दोनों प्रकार के अंकों में भिन्न-भिन्न रूप हैं और भिन्न-भिन्न अर्थ हैं अतः यह मुद्रणालय की सुविधा या असुविधा का प्रश्न नहीं है जैसा कि कुछ सदस्यों ने कहा है। मेरे विचार में मुद्रणालय की दृष्टि से हिंदी औरअंग्रेजी अंकों में कोई अंतर नहीं है।
किंतु हमें अपने मित्रों की भावनाओं का आदर करना है जो उसे चाहते हैं, थे, और मैं अपने सब हिंदी मित्रों से कहूंगा कि वह इसे उस भावना से स्वीकार करें, इसलिये स्वीकार करें कि हम उनसे हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि स्वीकार करवाना चाहते हैं और मुझे प्रसन्नता है कि इस सदन ने अत्याधिक बहुमत से इस सुझाव को स्वीकार कर लिया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आखिर यह बहुत बड़ी रियासत नहीं है हम उनसे हिंदी स्वीकार करवाना चाहते थे, और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया, और हम उनसे देवनागरी लिपि को भी स्वीकार करवाना चाहते थे, वह भी उन्होंने स्वीकार कर ली । वे हमसे भिन्न प्रकार के अंक स्वीकार करवाना चाहते थे। उन्हें स्वीकार करने में कठिनाई क्यों होनी चाहिये? इस पर मैं छोटा-सा दृष्टांत देना चाहता हूं जो मनोरंजक होगा । हम चाहते हैं कि कुछ मित्र हमें निमंत्रण दें। वे निमंत्रण दे देते हैं। वे कहते हैं "आप आकर हमारे घर में ठहर सकते हैं, उसके लिए आपका स्वागत है। किंतु जब आप हमारे घर आएं तो पया अंग्रेजी चलन के जूते पहनिए!, भारतीय चप्पल मत पहनिए, जैसा कि आप अपने घर पर पहनते हैं।
उस निमंत्रण को केवल इसी आधार पर ठुकराना मेरे लिए बुद्धिमत्ता नहीं होगी कि मैं चप्पल को नहीं छोड़ना चाहतामैं अंग्रेजी जूते पहन लूंगा और निमंत्रण को स्वीकार कर लूंगा और इसी सहिष्णुता की भावना से राष्ट्रीय समस्याएं हल हो सकती हैं।
हमारे संविधान में बहुत से विवाद उठ खड़े हुए है और बहुत से प्रश्न उठे हैं जिन पर गंभीर मतभेद थे, किंतु हमने किसी न किसी प्रकार उनका निबटारा कर लियायह सबसे बड़ी खाई थी जिससे हम एक-दूसरे से अलग हो सकते थे। हमें यह कल्पना करनी चाहिये कि यदि दक्षिण हिंदी भाषी और देवनागरी लिपि को स्वीकार नहीं करता तब क्या होता? स्विट्जरलैंड जैसे छोटे से, नन्हें से देश में तीन भाषाएं हैं जो मान्य हैं और सब कुछ काम उन तीन भाषाओं में होता है । क्या हम समझते हैं कि हम केन्द्रीय प्रशासनीय प्रयोजनों के लिये उन भाषाओं को रखने की सोचते जो भारत में प्रचलित हैं! तो क्या हम सब प्रांतों को साथ रख सकते थे? सब में एकता कर सकते थे? प्रत्येक पृष्ठ को शायद पन्द्रह-बीस भाषाओं में मुद्रित करना पड़ता और यह केवल व्यय का प्रश्न नहीं है। यह मानसिक दशा का प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा हम केन्द्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे उससे हम एक-दूसरे के निकटतर आयेंगेआखिर अंग्रेजी में हम निकटतर आये हैं क्योंकि वह एक भाषा थी अंग्रेजी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इसमें अवश्यमेव हमारे संबंध घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिये कि हमारी परंपराएं एक ही हैंहमारी संस् ति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं । अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि या तो इस देश में बहुत सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासंभव बुद्धिमानी का कार्य किया है और मुझे हर्ष है, और प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।
स्रोत - समाचार भारती, समाचार सेवा प्रभाग, आकाशवाणी व हिंदी राष्ट्रभाषा राजभाषा जनभाषा,