सफरनामा: आंगन से मीडिया तक, 70वें वर्ष में प्रवेश

|| सफरनामा: आंगन से मीडिया तक, 70वें वर्ष में प्रवेश|| 




यमुनाघाटी की भौगोलिक और सांस्कृतिक छटा अपने-आप में अप्रीतम् है। टौंस और यमुना के विशालकाय जलागम में बसे गावं जहां स्वावलम्बन के लिए विख्यात है वही यहां की सांस्कृतिक विरासत ने कईयों को नया आयाम प्रदान किया है। उत्तरकाशी जनपद में स्थित यह घाटी हमेशा से ही रंगकर्मीयों के लिए उर्वरक रही है। यमुनाघाटी यानि की रंवाई, सिराईं, बंगाण, फतेपर्वत, जौनपुर, जौनसार-बावर आदि क्षेत्र एवं पट्टीयों से परिचित कराती है। यहां के लोगो में अतिथ्या सत्कार की पहली कसौटी है और यहां प्रत्येक माह होने वाले तीज-त्यौहार यहां की परस्परता के साक्षी है। यह दीगर है कि यहां की सांस्कृतिक परिदृश्य पर कोई खास प्रकार से अध्ययनात्मक व शोध परक अब तक लिखा नहीं गया है। कुछ अखबारो से जुड़े पत्रकारो ने लिखने का प्रयास किया है जिसे पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। यमुनाघाटी में रंगमंच का इतिहास वैसे काफी पुराना है क्योंकि इस क्षेत्र का प्रत्येक नागरिक रंगकर्मी है।


विकासनगर और मसूरी से यूं कहे कि यमुना द्वार आरम्भ हो जाता है तो इसमे कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। यमुनाघाटी में प्रवेश करते वक्त किसी भी नवागन्तुक की सांसे थोड़ी देर के लिए रूक जाती है। गहरी और संकरी घाटी में थोड़ी देर सफर करने के पश्चात आप किसी भी गांव मे पंहुच जाये तो सांय ढलते ही सार्वजनिक स्थल जिसे स्थानीय भाषा में आंगन कहते है में कोई ना कोई गीत और नृत्यकारो की टोली नजर आ जायेगी। यह टोलियां वर्तमान की चकाचैंध में जरूर कहीं गुम हो गयी हो परन्तु गांव में आयोजित समारोह में स्वस्फूर्त रंगमच की जो विद्या यहां ''लोक'' में आज भी मौजूद है वह यहां के परस्पर और अतिथ्या रश्म-रिवाज को बखूबी दर्शाता है। इसकी वजह साफ है कि राज्य का यह एक मात्र क्षेत्र है जहां से पलायन का प्रतिशत शून्य है। आज भी यहां के त्यौहार, मेले, शादी-विवाह आदि तमाम आयोजन लोक रंगमच पर ही जिन्दा हैं। जगजाहीर है कि जहां-जहां से संस्कृति का लोप हुआ है वहां-वहां पर लोगो में ''वाद'' जैसी अवसाद की बिमारी तेजी से फैली है।


इस ''लोक रंगमंच'' को स्टेज और मीडिया तक पंहुच बनाने में यमुनाघाटी को थोड़ा समय लग गया। सन् 1952 में जब नौगांव विकासखण्ड की स्थापना हुई तो पहली बार सुनारा गांव से सकलचन्द रावत के नेतृत्व में उत्तरकाशी माघ मेले मे एक रंगकर्मीयो की टोली प्रस्तुति करने पंहुची। इस टोली ने तत्काल मेले के पाण्डाल मे मौजूद भीड़ को अपनी अतिआर्कषक प्रस्तुति से सोचने के लिए विवश कर दिया। जो नृत्य लोटा, परात और तलवार-जुड़का के साथ कभी चैक-आंगन में हुआ करते थे वह नृत्य लोगो को स्टेज पर देखने को प्राप्त हुआ है।


सन् 1952 से रंगमंच का सिल-सिला आरम्भ हुआ जो अब कई आयामो में पारंगत हो चुका है। तत्काल इस नृत्य की देशभर में खूब चर्चा रही और दूरदर्शन पर पहली बार किसी लोक संस्कृति को प्रदर्शन करने का श्रेय भी सकलचन्द रावत के इस ग्रुप को ही जाता है। इसी गु्रप ने चीन भारत युद्ध के दौरान सन् 1965-66 में देहरादून में हुए आर्मी के कैम्प में भी तलवार-जुड़का नृत्य की शानदार प्रस्तुति दी है। ततकाल आर्मी कैम्प में इस कार्यक्रम को देखने के लिए 100 रू॰ का टिकट था। इसी तरह सुनारा के सांस्कृतिक दल ने लगातार अपनी सक्रीयता बनाई रखी। सन् 1970 में इस दल का विधिवत गठन करके इसे ''नवरंग कलामंच सुनारा'' नाम दिया गया तथा दल की कमान दीपक चन्द और लक्ष्मण सिंह रमोला को सौंपी गयी। सन् 1975 के बाद मीना रावत व शशी रावत तथा तिलक चन्द रावत ने अलग-अलग समय में सम्भाली है। जबकि सŸार के दशक में पुरोला के खलाड़ी गांव के जीवी लाल ने गांव-गांव जाकर पहली बार कठपुतली की प्रस्तुति दी। ये शख्श काष्ट की दो कठपुतली क्रमशः बन्दर व चिड़िया बनता था। खुद ही इन कठपुतलियों को नचाता था और खुद ही गीत गाता था। इनका उन दिनों का गीत ''लाल चलकुणी सेरी ना जाणा, तिन्दा पाती मेरा गेंहुरा दाणा'' खूब सराहा जाता था।


इसी दौरान फिल्म निर्देशक डा॰ सुवर्ण रावत और डा॰ प्रभात उप्रेती पुरोला आकर अन्य कई नाटकों का मंचन स्थानीय रंगकर्मीयों के सहयोग से किया, जिनकी उन दिनो क्षेत्र में खूब सराहना भी की गयी। यानी यूु कहें कि यमुनाघाटी में रंगमंच की शुरूआत 70 के दशक में विधीवत हो गयी थी। 


अस्सी के दशक आते आते यहां का रंगमच विस्तार लेने लग गया। सन् 1984 में रंवाई-जौनपुर विकास मंच का गठन उत्तरकाशी में हुआ। इस मंच ने ''मुनारबन्दी'' नाटक की सफल प्रस्तुति दी। उन्हीं दिनो रवांई-बंगाण क्षेत्र के सुवर्ण रावत नेशनल स्कूल आफ ड्रामा से प्रशिक्षित होकर उŸारकाशी पंहुचे और नाट्य शिविर का आयोजन किया गया। जिसमे प्रसिद्ध लेखक डा॰ गोविन्द चातक के लिखित नाटक ''काला मुहं'' का मंचन 11, 12 जुलाई 1987 को किया गया। इन्ही दिनो सुवर्ण रावत, महर गावं पुरोला के महावीर रंवाल्टा जैसे युवाओं के नेतृत्व में उत्तरकाशी में 13 जुलाई सन् 1987 को कलादर्पण का गठन हुआ। इसी क्रम में पुरोला के महर गांव में महावीर रंवाल्टा की सिफारिश पर कलादर्पण ने एक माह का नाट्य शिविर लगाया जिसमें ''साजिश'' नाम का नाटक तैयार किया गया। कहा जा सकता है कि यह यमुनाघाटी में पहली बार आयोजित नाट्य शिविर था जिसकी बकायदा विडियो फिल्म भी बनाई गयी और महिला पात्र को पहली बार रंगमंच मे लाया गया।


1980 के बाद तो यमुनाघाटी में रंगमंच व सांस्कृतिक दलो की बाढ़ सी आ गयी। सन् 1987 में मण्डल सिंह के नेतृत्व में बिंगसी गांव मे एक सांस्कृतिक दल का गठन हुआ। जिसने अपनी ''तांदी नृत्य'' की प्रस्तुति उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक कला केन्द्र इलाहबाद में दी है। इन्ही दिनो मुराड़ी गांव में मंगत लाल व रमेश लाल के नेतृत्व में ''रंवाई जौनसार सांस्कृतिक कला मंच'' का गठन हुआ। इस दल की इतनी सक्रीयता थी कि दल को गीत एवं नाट्य प्रभाग भारत सरकार ने अनुबन्ध कर दिया। सन् 1988 में पुरोला के कुरड़ा गांव में जतनी लाल के संयोजन में ''भगवती कलामंच'' का गठन हुआ। यह मंच अपनी प्रस्तुति को लेकर आज भी माघ मेला उत्तरकाशी तक ही सीमित है।


इसी तरह 1989 में पुरोला के ही चन्देली गांव में सुब्यालाल के नेतृत्व में ''रघुनाथ कला मंच'' के नाम से गठित हुआ। सन् 1990 में तुनाल्का गांव में फकीर सिंह चैहान व विनोद रावत के नेतृत्व में ''मधुर क्लब'' का गठन हुआ। इस क्लब ने गीत एवं नाटको के माध्यम से उत्तरकाशी जिले में सरकारी योजनाओ का खूब प्रचार-प्रसार किया।


बाद में यह मधुर क्लब ''मधुर कलामंच'' में तब्दील हो गया और इस दल का नेतृत्व 1996 में अमित सावन ने संम्भाली। सन् 1992 में सरनौल गांव का पाण्डव नृत्य माघ मेले के मंच पर लाया गया। इस नृत्य के करतब दर्शको को चैंका देने वाले है। लगातार नृत्य की प्रस्तुतियां विभिन्न समारोह में होती रही है और मार्च 2011 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र नई दिल्ली द्वारा महाभारत पर आयोजित ''जय उत्सव'' में सरनौल गांव के कलाकारो ने डा॰ सुवर्ण रावत के निर्देशन में ''पाण्डव नृत्य'' की सफल प्रस्तुति दी है। 1990-91 में ही नौगांव में विजयपाल रावत के संयोजन में एक सांस्कृतिक दल गठित हुआ और इस दल ने जनपद भर में लोक संस्कृति पर खूब प्रस्तुतियां दी है।


1994 में पहली बार उŸारकाशी में गढवाल महोत्सव का आयोजन हुआ था। इन्ही दिनो बड़कोट में आकाशवाणी के वरिष्ठ कलाकार पातीराम जगूड़ी के संयोजन में ''मां यमुना सांस्कृतिक कला मंच'' की स्थापना की गयी जिसका नेतृत्व परशुराम जगुड़ी कांे सौंपा गया। 


अब तक रंगमंच के बहुत सारे दल यमुनाघाटी में दिखाई देने लग गये। इन दलो का प्रयोग अन्य क्षेत्रो में कार्यरत संस्कृतिकर्मीयों ने भी समय-समय पर किया है। क्योंकि उŸाराखण्ड का कोई भी कलाकार यमुनाघाटी के नृत्य और गीत के बिना अपनी प्रस्तुति अधूरी समझता है। लिहाजा 1997-98 में ''रंवाई जन विकास दर्पण'' का गठन लेखक के संयोजन में कफनौल गांव में हुआ जिसका सफल निर्देशन आरती पंवार ने किया। इस दल ने पहली बार महाभारत काल की ''हिडम्बा'' कहानी का मंचन लोक भाषा में देशभर में किया। इसी दल ने यमुनाघाटी का प्रसिद्ध त्यौहार ''बग्वाल'' पर एक नृत्य नाटिका ''वाॅर्त और भैलो'' को मंच पर उतारा है।


रंवाई जन विकास दर्पण ने सन् 2000 तक ''हिडम्बा, पाण्डव नृत्य, वाॅर्त और भैलो, हारूल, सरंग नृत्य, डोली नृत्य पैंसर नृत्य'' आदि की सफल प्रस्तुति देशभर में दी है। 1996-97 में यमुना घाटी के वरिष्ठ रंगकर्मी पृथ्वीराज कपूर द्वारा ''सबरंग कलामंच'' का गठन करवाया गया। इस दल में यमुनाघाटी के चीर-परिचित कलाकार लोक गायक महेन्द्र सिंह चैहान, लोक गायक राधेश्याम नौटयिाल, सुनिल बेसारी, ढोलक मास्टर साधुराम चोपड़ा, दलवीर असवाल,  शिक्षक भूरादास आर्य, गढवाली फिल्मो की अभिनेत्री संजिता कुकरेती सरिके चर्चित लोग सम्मलित रहे है। मंच ने अपनी पहली प्रस्तुति सरहद पर हो रहे आंतकवाद की दकीयानूसी पर आधारित ''वतन पर मर मिटेगें'' नाटक की बड़ी मार्मिक प्रस्तुति दी है। 1997 में वंशी लाल ने मोरी के नानाई गांव में ''रेणुका कलामंच'' की स्थापना की है। यह मंच मोरी क्षेत्र में सरकारी एवं गैर सरकारी योजनाओ के प्रचार-प्रसार में अब तक सक्रीय रूप से कार्यरत है। 2002 में यमुनाघाटी के प्रसिद्ध लोक गायक महेन्द्र सिंह चैहान द्वारा ''धुनगीरी कलामंच'' की स्थापना ढकाड़ा गांव में की है। यह मंच भी सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग द्वारा अब तक अनुबधित है।


सन् 2003 में ''जन आस्था मंच'' का गठन बड़कोट में दिनेश भारती के निर्देशन में हुआ है। मंच ने अब तक रंवाई घाटी की लोक कथाओ पर ''गजू भेड़ल, महासूदेवा, हिडम्बा, सिदवा रमोल, तथा प्रख्यात साहित्यकार महावीर रंवाल्टा रचित नाटक ''सफेद घोड़े का सवार'' की प्रस्तुति राज्यभर में दी है। इसके अलावा समाजिक बुराईयों पर मंच की सक्रीयता नुक्कड़-नाटको के माध्यम से लगातार जारी है। 2004 में सतपाल महाराज के अनन्य भक्त शिक्षक सोवेन्द्र सिंह और उनके ही छोटे भाई राम प्रकाश ने नगांणगांव में ''जय माता राजराजेश्वरी सांस्कृतिक कला मंच'' की स्थापना की है। इस मंच ने राज्य का एक मात्र त्यौहार ''देवलांग'' पर आधारित नृत्य नाटिका का आर्कषक मंचन राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर किया है। जिसे आज भी वे बरकरार रखे हुए है। यह सांस्कृतिक दल वर्तमान में संस्कृति विभाग उŸाराखण्ड द्वारा अनुबंधित है। 2005 में लेखक ने यमुनाघाटी के प्रबुद्ध लोगो, साहित्यकारो, पत्रकारो के साथ मिलकर ''हिमालयी संस्कृति संरक्षण एवं शिक्षा संस्थान'' की स्थापना डामटा में की है। संस्थान तब से लगातार रंगकर्मीयों के क्षमता विकास व नृत्य, गायन, वादन, लेखन के लिए प्रतिवर्ष 15 दिवसीय कार्यशाला का आयोजन करती आ रही है। संस्थान से जुड़े साथी रंवाई क्षेत्र के लोक साहित्य पर शोधपरक कार्य कर रहे है। संस्थान के संचार दल की सबसे आकर्षक प्रस्तुति ''ढोलकरी नृत्य'' है। जिसकी पहली प्रस्तृति अन्राष्ट्रीय योग महोत्सव ऋषिकेश में हुई और इस दौरान महोत्सव में मौजूद दुनियांभर से आये 22 देशो के लोगो ने इस लोक नृत्य को खूब सराहा।


संस्थान वर्तमान में संस्कृति विभाग उŸाराखण्ड व दूरदर्शन, आकाशवाणी से भी अनुबंधित है। 2005 में ही खलाड़ी गांव में अनिल बेसारी ने नेहरू युवा केन्द्र के सहयोग से ''युवा जनजागृति क्लब'' की स्थापना की है। क्लब युवाओं के साथ लगातार रंगमच विद्या के माध्यम से शिविर व सेमिनारो का आयोजन करता रहता है। यह क्लब वर्तमान में सूचना एवं लोक सम्र्पक विभाग उŸाराखण्ड से अनुबन्धित है। 2008 में मोरी ब्लाॅक में दोणी गांव के विनोद सिंह के संयोजन में ''मांउण्ट स्टार कलामंच'' का गठन किया गया।