सवाल पहाड़ व मैदान का नही दिल व दिमाग का है 



||सवाल पहाड़ व मैदान का नही दिल व दिमाग का है||



पहाड़ और मैदान में कोई जमीन और आसमान का अन्तर नहीं है। समझना यह है कि पहाड़ है तो मैदान भी है। मैदान भी है तो पहाड़ में लोगो को आवष्यक सुविधाऐ मुहैया होती है। कुलमिलाकर पहाड़ और मैदान का कोई भेद नही है। भेद है तो राजनीतिक। वरना लोग तो परस्परत से ही रहते है।


पहाड़ में कृषि योग्य भूमि का अभाव है तो मैदानो में इसकी पूर्ती होती है। पहाड़ में पर्यटन है, तीर्थाटन है और उद्यानीकि है तो मैदान में उद्योग धन्धे है। अन्तर सिर्फ इतनाभर है कि पहाड़ में पहाड़ के अनुरूप विकास की अवधारण नहीं रखी जा रही है। कहा जा रहा है कि राज्य बनने के प्श्चात पहाड़ में ना तो फलोत्पादन, ना पर्यटन, ना तीर्थाटन और ना ही ऊर्जा के विकास के लिए ठोस कार्यक्रम बन पाये है जिस कारण पहाड़ का नौजवान वेवष है और रोजी रोटी की तलाश में घर-गांव छोड़ रहा है।


हमे यह सोचना ही नही होगा बल्कि विकास के कार्यो को पटल पर उतारने के लिए कमर कसनी होगी। इसके लिए राजनीतिक कार्यकर्ताओ को चुनावी रंजिश को भूलना होगा। उन्हे यह समझना होगा कि चुनाव तो एक स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के माध्यम से अब्बल प्रतिनिधियों को लोक कल्याणकारी योजनाओ पर ध्यान देना होगा। अगर ऐसा होता है तो राज्य के कर्णधारो के मन से भेद और पहचान का खौप ध्वस्त हो जायेगा। मन में यह विकार तब घर करते है जब लोक सेवक विकास के पायदान पर वोट की राजनीति करता है। इस तरह उसके काम का समय यानि पांच वर्ष कब पूरे होते है पता नहीं चल पाता है।
राज्य के सवा करोड़ लोगो के लिए विकास की सही योजनाओ के संबध में प्रत्येक राजनीतिक कार्यकर्ता को सारगर्भित तौर पर सोचना होगा। अब तो इस राज्य में लोक सेवको को नई इबारत लिखनी होगी।


आन्दोलन, बदले की राजनीति, दलगत राजनीति आदि विकास के रास्ते में बाधा है। अर्थात करना क्या है उस ओर ध्यान देने की जरूरत है। गौर फरमायें कि यदि समय रहते पहाड़ में फलोत्पादन को रोजगार का जरिया बनायें और काश्तकारो के लिए तकनीकी व आवष्यक ढांचागत सुविधाऐ जैसे सड़क, विजली पानी एवं बाजार आदि का समय पर विकास किया जाये तो अधिकांश युवाओं के हाथो रोजगार प्राप्त हो सकता है। इसी तरह पर्यटन के क्षेत्र में युवाओ के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण की उम्दा व्यवस्था हो, साथ ही स्थानीय युवाओं को साहसिक पर्यटन से लेकर तीर्थाटन व टूर-ट्रैवलिंग तक में सम्मलित करने के लिए सरकार विशेष योजना क्षेत्रवार व आवष्यकता अनुसार बनाये भी और समय-समय पर क्रियान्वित भी करे।


ऐसे कार्यक्रम राज्य में रोजगारपरक सिद्ध होगे। मगर होता यह आया है कि आवष्यकता के विपरित सरकार की कई जन कल्याणकारी योजनाऐं अधिकांष विफलता की ओर जाती है। जिसका हस्र यह होता है कि लोग कुनबो में बंट जाते है और आपसी भेद की मनगढत लकीरे खींचने में स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ता उनकी मदद करने में कोई गुरेज भी नहीं करते। यही वजह है कि पहाड़ में लोगो को ऐसे सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि पहाड़ के लोगो के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है। उन्हें लगता है कि मैदानो में तो खूब उद्योग धन्धे विकसित हो रहे है मगर पहाड़ में रोजगार के कोई भी साधन सरकार विकसित नही कर रही है। इसलिए सरकार को और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पहाड़ और मैदान में लोगो के लिए बनाई जा रही विकास की योजनाओ पर पैनी नजर रखनी होगी। पहाड़ में पर्यटन व्यवसाय के साथ होटल व्यवसाय एक खास प्रकार का उद्योग बन सकता है। सरकार को चहिए कि होटल, गेस्टहाऊस, पेंईग गेस्टहाऊस आदि के लिए पंजिकरण की प्रक्रिया सरल और पारदर्शिता बनानी होगी। इसके लिए सबसे पहले मोटर मार्गो को व्यवस्थित करना होगा। विद्युत, पानी व स्वास्थ्य की सुविधा हर गांव व कस्बो में अनिवार्य रूप से विकसित करनी होगी।


दूसरी तरफ सरकार का मानना है कि राज्य में लोगो को रोजगार भी मुहैया हो और राज्य को राजस्व भी मिलता रहे। इसके लिए कई और तरिके है। उदाहरण के तौर पर राज्य में राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत सरकारें जलविद्युत को देख रही है। इसके लिए सबसे पहले पहाड़ के अनुरूप जलविद्युत को विकसित करना होगा। जहां ऐसी परियोजनाऐ बन रही हो या बनाई जा रही है वहां के लोगो को विश्वास में लिए बिना कोई अगला कदम ना उठाया जायें। बड़ी और विशालकाय जलविद्युत परियोजनाओ के बारे में बिना वैज्ञानिक सलाह और राज्यवासियों को नजरअन्दाज करते हुए सोचना ही जनविरोधी मानसिकता ही कहलाई जाती है। अच्छा हो कि बड़ी परियोजनाओ को स्थापित करने से पूर्व लोगो की मांग पर अनिवार्य रूप से अमल किया जाये। उनकी मांग की पहले ही पूर्ती की जाये। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि सरकार और लोगो में संवादहीनता फैलती दिखाई दे रही है। संवाद को पुनः स्थापित करने की आज की जरूरत है।


चिन्ता का विषय यह है कि पहाड़ मे ऐसी कोई योजना विकसित नहीं हो पाई है कि जिससे पहाड़ का नौजवान रोजगार पा चुका हो। जब उस नौजवान को रोजगार के लिए दूसरी जगहो पर पलायन करना पड़ता है तो यहीं पर पहाड़ व मैदान का सवाल खड़ा हो जाता है। क्योंकि मैदानो में उद्योग धन्धो की भरमार से लगता है कि पहाड़ में सरकार का नजरिया जनविरोधी है। इस नजरिए को बदलना होगा। पुनः यह कह सकता हूं कि पहाड़ से बहकर आ रहा पानी, कंकड़, खाद मैदानो की जमीनो को सरसब्ज कर रहा है। इसी जमीन से पैदा होती खाद्य सामग्री वापस पहाड़ में पंहुचती है।


अलबत्ता मैदानो के लोगो को रोजगार भी प्राप्त हो रहा है। इसलिए पहाड़ के बिना मैदान नहीं है और मैदानो के बिना पहाड़वासी भी नहीं है। हमें इस झगड़े से दूर ही रहना है। सिर्फ इतना जरूर है कि पहाड़ के नौजवानो के लिए पर्यटन, तीर्थाटन, और उद्यानिकी के क्षेत्र में सरकार को क्षेत्र के अनुरूप योजनाऐं बनानी भी होगी और क्रियान्वित भी करनी होगी। ऐसा करने से लोग स्वावलम्बी होगे। पहाड़ मैदान का सवाल खत्म होगा। लोगो की निर्भरता कम होगी।