उत्साहपूर्वक अर्थी विदाई का एक मनोवैज्ञानिक तर्क

||उत्साहपूर्वक अर्थी विदाई का एक मनोवैज्ञानिक तर्क||


कौतुहल का विषय यह है कि देशभर में कुछ जगहो पर मृत्यु के पश्चात अर्थी को सम्मानपूर्वक विदा करते हैं। इसके पिछे कुछ लोग मनोविज्ञान की बात करते हैं तो कुछ परम्परा की बातें करते है। अर्थी विदाई की परम्परा और उस मनोविज्ञान के परस्पर संबधो के निहीतार्थ भले ही भिन्न क्यों ना हों परन्तु समाज की इस परम्परा को समझे बिना गलत साबित नहीं किया जा सकता। 


उत्तराखण्ड राज्य में कुछ जगह ऐसी हैं जहां मनुष्य की अर्थी विदाई के लिए बाकायदा गाज-बाजो का बन्दोबस्त किया जाता है। ऐसा प्रचलन शायद शहरो में ना हो परन्तु उत्तराखण्ड राज्य के सम्पूर्ण उत्तरकाशी जनपद, पिथौरागढ के मुनस्यारी, चम्पावत के धारचूला, देहरादून के जौनसार-बावर व टिहरी के जौनपुर क्षेत्र के सभी गांव में मृतक शरीर की अर्थी को अन्तिम संस्कार के लिए गांव के अन्य लोगो सहित नाते-रिश्तेदार मिलकर ढोल-बाजो के साथ मुर्दाघाट तक पंहुचाते हैं। जिस घर में यह घटना घटती है वहां स्थानीय लोग लगभग 13 दिन तक उस परिवार के साथ रहते हैं और बात-चीत एवं विगत घटनाओं के उदाहरणो के मार्फत दुखः को बांटते है। ताकि भविष्य में उस परिवार के दुखः के कारण उनका काम-काज बाधित ना हो। ऐसा यहां के लोगो का मानना है। इसलिए विदाई की वह दमदार संस्कृति आज भी इन क्षेत्रों के गांवो में बची हुई हैै। यमुनाघाटी के प्रसिद्ध ढोलवादक और ढोलसागर के मर्मज्ञ बचनदास कहते हैं कि प्राणी जगत में सबसे ज्यादा समझदार इन्सान ही है। इन्सान जिस तरह से पैदा होने पर खुशिया मनाता है उसी तरह मरने पर वह खुशिया नहीं मनाता परन्तु उससे उसके अपने को बिछुड़ने का जो दुखः होता है उसकी भरपाई कभी नहीं होती।


इसलिए मनोविज्ञान को समझते हुए शास्त्र भी यही कहते हैं कि विद्यी के विद्यान को टाला नहीं जाता वरन् उसके दुखः को शिथील करना उसके समकक्ष मनुष्य का कर्तव्य ही है। इसलिए समझदार प्राणी का ही विद्यान है कि वे पार्थिव शरीर को एक विदाई समारोह के रूप में सम्पन्न करें। ऐसा ढोलसागर और वेदो में भी बताया गया है। कहते हैं कि शहर में जो पंरम्परा बन रही है कि मृतक शरीर का अन्तिम संस्कार चुप-चाप तरिके से किया जाये। वही तरिका समाज से ''प्रेम'' दूर कर रहा है। दिन-प्रतिदिन समाज में ''प्रेम सौहार्द व परस्परता'' की भावनायें समाप्त हो रही है। लोग निजी स्वार्थो में जकड़कर ईष्यालु हो रहे हैं। जातिवाद और अधिक बढा रहा है। जबकि गांव में थोड़ी सी मनमुटाव पर ऐसी दुखःदायी घटनाओ से लोगो में समझौते का अवसर प्राप्त होता है। यह उस विधान की भावना है जहां लोग आगमन और परागमन में कोई भेद नहीं समझते। इसलिए आगमन और परागमन की महत्ता सम्मान है। सिर्फ फर्क इतना भर है कि बिछुड़ने का घाव भरता तो नहीं मगर इस घाव को भरने की जो कोशिश परम्पराओं में की गयी है वह कारगर ही है। इसलिए उनकी यमुनाघाटी में लोग अर्थी को ढोल-बाजो के साथ विदा करते हैं।


उल्लेखनीय हो कि परागमन समारोह की परम्परा सिर्फ व सिर्फ यमुनाघाटी व गंगा घाटी यानि देहरादून का जौनसार-बावर, टिहरी का जौनपुर, व सम्पूर्ण उत्तरकाशी जनपद मे ही सर्वाधिक देखने को मिलती है। यहां जो गांव शहरो में तब्दील हो चुके हैं वहां अब अर्थी विदाई की परम्परा समाप्त हो चुकी है। उदाहरण स्वरूप उतरकाशी जनपद का नौगांव गांव जो अब बाजार की शक्ल ले चुका है। बाड़हाट जो उत्तरकाशी नाम से शहर की शक्ल में है आदि जगहो पर अर्थी को शमशान घाट तक पंहुचाने के लिए गमगीन माहौल में लोग इक्ट्ठे होते हैं। घनसाली के वरिष्ठ समाजिक कार्यकर्ता जगतराम बताते हैं कि उनके क्षेत्र में यदि कोई देह त्यागता है तो संबधित रिश्तेदार शंक की एक लम्बी ध्वनी देकर संदेश करते हैं कि गांव में कोई घटना हुई है ताकि लोग अर्थी जलाने के लिए लकड़ी का इन्तजाम कर सके और अमुक के घर-पर उनके दुखः के साथ खड़े हो सके।


अर्थी को शमशान तक ले जाने के लिए गांव के सभी लोग जाते हैं। मगर एक गमगीन माहौल में। चर्चित रंगकर्मी जितेन्द्र कहता है कि उनके जनपद चमोली में ऐसे वक्त गमगीन माहौल होता है। वहां अर्थी के साथ गांव में हो या पड़ोस के गांव में जो लोहे का कार्य करने वाला होता है वह अर्थी के आगे-आगे अंगेठी लेकर चलता है। जिसमें आग जली होती है। इसी आग से अर्थी को मुखाग्नी दी जाती है। सामाजिक कार्यकर्ता सुमन अधिकारी कहती है कि नैनीताल और पिथौरागढ क्षेत्र में अर्थी के साथ लोग राम नाम सत्य है जैसे शब्दो को रूदन स्वर में शमशान घाट तक कहकर जाते है। जबकि पिथौरागढा मुनस्यारी व चम्पावत के क्षेत्र में रह रहे भोटिया जनजाति के लोग अर्थी को ढोल-बाजो के साथ विदा करते है।


ज्ञात हो कि अर्थी विदाई के साथ-साथ उसके बाद के कर्मकाण्ड की अलग-अलग क्षेत्रो में अलग-अलग परम्परा है। देहरादून जनपद के जौनसारी जनजाति क्षेत्र में मृत्यु के पश्चात तेरहवीं का कार्यक्रम सिर्फ तीन दिन से लेकर अधिकतम नौ दिन तक ही होता है। जबकि यमुनाघाटी और उत्तरकाशी जनपद में यह कार्यक्रम सात दिन से लेकर 13 दिन तक चलता है। यानि 13वें दिन जिस दिन से अमुक घर के सदस्यों की बाधाओं जैसे रिश्तेदारी में ना जाना, तेल वाली चिजो का उपभोग ना करना और मांस-मदिरा का सेवन ना करना जैसी पाबन्दी को खोल दिया जाता है।


13वें दिन पंडित द्वारा पूजा-पाठ करके यह कार्यक्रम सम्पन्न होता है। इस पूजा में एक खास बात यह होती है कि पूजा के दौरान सिर्फ व सिर्फ पीले टिके का ही इस्तेमाल किया जाता है। ताकि इस कार्यक्रम में सम्मलित लोगो से मालूम हो जाये कि आज फलां जगह 13वीं का कार्यक्रम था। पं॰ को वह सभी वस्तुऐं भेंट की जाती है जो मृतक को पंसन्द हुआ करती है। परन्तु उसमें पं॰ की तरफ से इतनी उदारता रखी जाती है कि यदि अमुक परिवार की सामथ्र्य वह सभी वस्तुओं को भेंट करने की नहीं है तो वे एकमुस्त व छोटी सी रकम भेट कर सकते हैं। आचार्य राजेन्द्र प्रसाद सेमवाल बताते हैं कि गांव समाज में पैदा होने से लेकर मृत होने तक में सेलीब्रेट करने की कुछ परम्पराऐं लोगो ने अपनी ही ईजाद की हुई होती है। कुछ धर्मशास्त्रो के अनुरूप सम्पन्न की जाती है। जैसे यमुनाघाटी में मृतक की विदाई सःसम्मान की जाती है। यह लोक संस्कृति का एक पहलू है। भगवान विष्णु, ब्रहमा व महेश को इस पृथ्वी के रचियाता बताया जाते है। इन्ही की रचना के रूप में जन्म से लेकर मृत्यु तक के कर्मकाण्ड को जीवन जीने का हिस्सा बनाया गया है। उदाहरणस्वरूप जौ, तिल, कुशा को भगवान विष्णु के शरीर का मैल बताया गया तो वहीं कुशा को केश का रूप बताया गया है। इसलिए दाहसंस्कार में इन्ही का प्रयोग किया जाता है। ताकि मृत्यु के बाद भी पुर्नजन्म की प्रक्रिया आरम्भ हो सके। कहा कि यह एक तरह का शुद्ध मनोविज्ञान ही है।


पं॰ शिवानन्द उनियाल कहते हैं कि यमुनाघाटी में जो मृतक शरीर के लिए विदाई समारोह किया जाता है वह उसकी मृतक आत्मा के सम्मान के लिए इस तरह का कार्यक्रम किया जाता है। कहा कि जैसे कोई सत्ता-प्रतिष्ठानो या अन्य सामाजिक कार्यो से जुड़ा व्यक्तित्व शरीर त्यगता है तो उनका दाहसंस्कार सैनिक सम्मान के साथ होता हैं। ठीक इसी तरह यमुनाघाटी में भी लोग अपने गांव समाज में मृतक आत्मा के सम्मान के लिए ढोल-बाजो की व्यवस्था होती है। यमुनाघाटी के लोगो का सांस्कृतिक रूप से एक खास प्रकार का कुनबा है। और इस कुनबे की यह परम्परा पुश्तैनी कही जा सकती है। उन्होने कहा कि यमुनाघाटी में मृतक परिवार में वह सभी क्रियाकलाप होते हैं जो भारतीय शास्त्रो में दिवगंत आत्मा के शांती के लिए किया जाता है। कहा कि दिवगंत आत्मा की शांती और पुर्नजीवन की कल्पना के लिए शास्त्रो में 360 पिण्ड देने की परम्परा है।


पिण्ड जौ, तिल और कुशा से बनता है। जिसे कहा जाता है कि यह भगवान विष्णु के शरीर का मैल है। कुशा का सबन्ध भगवान विष्णु के केश से बताया जाता है। जैसा कि शास्त्रो में बताया गया है। पिण्ड वही देता है जिसका अमुक मृतक से खून का रिश्ता होता है। छः पिण्ड दाहसंस्कार के दिन और 10 पिण्ड अगले 13 दिनो या पातक समय की जो तिथी तय की गयी हो तक। और 360 पिण्ड सम्पूर्ण वर्षभर तक देने होते हैं। कहा कि सूतक का मतलब पैदा होने से और पातक का मतलब मृतक से है। कुलमिलाकर पिण्ड देने का तात्पर्य जीवन के पुर्ननिर्माण से है। उन्होने कहा कि अबाजू और मरछूत से संबन्ध यह है कि यमुनाघाटी के लोग भी अपने गांव के उस दुखी परिवार के दुख को बांटने के लिए तीन दिन तक यह पंरम्परा निभाते हैं। जिसे अबाजू या मरछूत कहते हैं। अबाजू और मरछूत के कारण तीन दिन तक गांव में सामूहिक और व्यक्तिगत कार्यो पर प्रतिबन्ध रहता है। दाहसंस्कार में ढोल-बाजो का मतलब यह है कि वे ग्रामीण मृतक को अपने ग्रामीण सैन्य सम्मान से विदाई दे रहे होते हैं। 

अर्थी को ढोल बाजो के साथ ले जाना एक विज्ञान है
उत्तरकाशी जनपद, देहरादून का जौनसार-बावर एवं टिहरी के जौनपुर क्षेत्र में अर्थी की विदाई ढोल-बाजो से की जाती है। जिसे स्थानीय भाषा में टुणाहट कहते है। इसके बाद तीन दिन तक गांव में नौबत भी नहीं बजती है। जिसे मरछूत कहते हैं। यह परम्परा है तो है ही लेकिन यह एक तरह का मनोविज्ञान भी है। जो दुखः की घड़ी में दुखः को बांटने का कार्य करता है। यह परम्परा इस क्षेत्र के अलावा पिथौरागढ व मुनस्यारी के कुच्छेक जगह पर हैं और कहीं नही है। देशभर में तो बहुत जगह पर है। मैने अर्थी के विदाई की मनोविज्ञान पर अपनी किताब ''गढवाल और गढवाल '' पर एक छोटा अध्याय लिखा है।
-ः गणेश खुगशाल 'गणी' वरिष्ठ पत्रकार