ये ना सोचूँ राह कहाँ है, बस ये सोचूँ पार है जाना  

ये ना सोचूँ राह कहाँ है, बस ये सोचूँ पार है जाना  


उत्तराखण्ड महिला परिषद्, अल्मोड़ा के सहयोग से शेप संस्था, ग्राम बधाणी, के तत्वाधान में संगठनों के साथ मिल कर महिला साक्षरता एवं शिक्षण कार्यक्रम चलाया गया। केन्द्रों में गाँवों की अनपढ़, पढ़ी-लिखी महिलायें एवं लड़कियाँ नियमित रूप से आती हैं। जो महिलायें पढ़ लिख नहीं पाती थी, वे भी अब संगठन के उत्साह और लगन के कारण अक्षर-ज्ञान, अंक-ज्ञान के साथ-साथ पंचायती राज, राशन कार्ड, जॉब-कार्ड आदि के बारे में जानकारियाँ प्राप्त कर रही हैं। जो महिलायें साक्षरता केन्द्र में नियमित रूप से आती हैं, वे हर रोज कुछ नया सीखती हैं। वे नया कार्य सीखने की कोशिश में लगी रहती हैं। घर का काम छोड़कर केन्द्र में कुछ समय के लिए अवश्य आती हैं और खुशी एवं उत्साह के साथ पढ़ना-लिखना सीखती हैं। वे केन्द्र में पहुँचते ही व्यस्त हो जाती हैं। जो महिलायें केन्द्र में नहीं आ पाती, उन्हें भी विभिन्न गतिविधियों के बारे में बताती हैंअब जहाँ साक्षरता केन्द्र बन्द हो गये हैं, उन गाँवों में भी महिलायें संगठन की मासिक गोष्ठियों में खुल कर अपने विचार रखती हैं। पंचायतों की खुली बैठकों में अपनी बातें कहती हैं।


संगठनों की सदस्याएं ग्राम पंचायत के चुनावों में भी सक्रिय भागीदारी कर रही हैं। वे ग्राम से जिला स्तर तक पंचायतों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। संस्था का यही प्रयत्न रहा है कि क्षेत्र के दूरस्थ गाँवों तक संगठनों की जानकारी दें । जो गाँव हम संस्था प्रतिनिधियों ने कभी देखे भी नहीं थे, सिर्फ नाम सुने थे, आज उनके साथ मिलकर काम कर रहे हैं। अनेक ग्रामवासियों को हम पहचानते भी नहीं थे लेकिन आज उन्हें संगठनों के माध्यम से जानते हैं। ग्रामवासियों के साथ लगातार काम करके हमें महिलाओं की स्थिति का पता लगा। महिलाओं के सुख-दुखों का अनुभव हुआ। पता लगा कि कैसे एक गरीब माँ अपने परिवार का भरण-पोषण करती है। गाँव में रह रहे उन परिवारों का पता लगा जिन्हें हर दिन दो वक्त के खाने के विषय में सोचना पड़ता है। पता कि जो किसान-किसानी तेज धूप, वर्षा में खेती कर रहे हैं, उनके सुख-दु:ख, आशा-निराशा की बातों को हम संस्था के कार्यकर्ता समझ सकते हैं लेकिन उनके दुःख-तकलीफों को दूर करने के लिए चाह कर भी एक सीमा तक ही काम कर पाते हैं। अगर संस्थाओं के पास अधिक संसाधन होते तो गरीब परिवारों की बहुत मदद कर सकते थे। ये ऐसे परिवार हैं जिन तक न सरकारी योजनाएं पहुँचती हैं और ना ही कोई अधिकारी उनसे बात करने का प्रयत्न करता है। ऐसे परिवारों की संख्या बहुत है। खासकर, दूर-दराज के गाँवों में सीमित संसाधनों और निम्नतम सुविधाओं के बीच जीवन-यापन कर रहे परिवारों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।


इस तरह, हम बोलने और काम करने के अन्तर को समझे हैं। उत्तराखण्ड महिला परिषद् की बैठकों में आयी हुई महिलाओं की बातों का अर्थ समझे हैं। संगठनों की बैठकों में जाकर उन महिलाओं से चर्चा कर सके हैं जो अपनी बातें किसी के सामने बोल नहीं पाती थीं।