पहाड़ी किसान ‘इलमतु दादा’ आज है ‘मनरेगा मजदूर


||पहाड़ी किसान 'इलमतु दादा' आज है 'मनरेगा मजदूर||


गढ़वाली भाषा में 'बौळ्या' माने सुध-बुध खोने वाला हद दर्जे का दीवाना। 'बौळ्या' गढ़वाली जनजीवन में दुलार वाला लोकप्रिय सम्बोधन है। 'मंगतू बौऴया' गढ़वाली समाज के सांस्कृतिक परिवेश का एक हंस-मुख चर्चित चरित्र है। गढ़वाली साहित्य सृजन के प्रति अति प्रेमातुर कवि जयानन्द खुकसाल ने इसी अपनेपन को अपनाते हुए अपना उपनाम 'बौळ्या' रखा होगा। जयानंद खुकसाल 'बौळ्या' गढ़वाली के अग्रणी कवियों में शामिल रहे हैं। जयानंद खुकसाल 'बौळ्या' द्वारा रचित 'इलमतु दादा' कविता संग्रह की गढ़वाली काव्य साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान है। 'इलमतु दादा' कविता पहाड़ी किसान की हालात और जज़बात का प्रतीकात्मक चित्रण है।


कविवर जयानंद खुकसाल 'बौळ्या' का जन्म पौड़ी गढ़वाल में असवालस्यूं पट्टी के 'उण्यूं' गांव में 17 अक्टूबर, 1926 को हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद किशोरावस्था में ही वे सेना में भर्ती हो गये थे। सेना में 12 वर्ष की सेवा के उपरान्त वे गणेश फ्लोर मिल, दिल्ली में 1986 तक कार्यरत रहे। दिल्ली में रहते हुए 'बौळ्या' जी पंडिताई, ज्योतिष और गढ़वाली साहित्य सृजन से जुड़े रहे।


पचास से सत्तर के दशक तक 'बौळ्या' जी की गढ़वाली कवितायें जनमानस में काफी चर्चित रही हैं। इस दौरान के गढ़वाली साहित्यकार यथा- अबोधबन्धु बहुगुणा, सुदामा प्रसाद प्रेमी, कन्हैया लाल डंडरियाल, सर्वेश जुयाल, शेर सिंह 'गढ़देशी', गिरधारी प्रसाद थपलियाल 'कंकाल' आदि से बिल्कुल अलग पहचान के साथ जयानन्द खुकसाल 'बौळ्या' ने काव्य रचनायें की थी। उनकी रचनाओं में यर्थाथ के प्रतिमान ज्यों का त्यों गीतात्मक प्रतीकों में सामने आये हैं। कवि की कल्पना की गुंजाइश उनमें बस कहने भर की ही है। बिना लीपा-पोती के उनके बिम्ब पाठकों और दर्शकों पर असरदार रहे हैं।


अरुणोदय प्रकाशन, दिल्ली से सन् 1988 में प्रकाशित 'इलमतु दादा' कविता संग्रह में 'बौळ्या' जी की 21 कविताएं शामिल हैं। 'छब्बीस जनवरी', 'क्याजि कल्या', 'घुतड़ू की ब्वै', 'चिठ्ठी', 'जोग माया', 'कन्ट्रौल, 'इलमतु दादा' आदि गढ़वाली की मशहूर कविताओं का आनन्द इसमें हैं। इन कविताओं को पढ़कर उस दौर में पहाड़ से गये युवाओं की दिल्ली में रहने और रोजगार के लिए भुगते संघर्षों को समझा जा सकता है। पचास-साठ के दशक में बड़े महानगरों की ओर जाने वाले युवाओं का पूरा परिवार गांव में रहता था। 'बौळ्या' जी ने पहाड़ और प्रवास के आपसी संबधों पर बेहतरीन रचनायें रची। आजादी के बाद कई वर्षों तक पहाड़ से दिल्ली जाकर छब्बीस जनवरी परेड देखने लोग खूब जाते थे। छोटे-मोटे काम धन्धों में लगे उनके परिचितों को इस दिन कैसी कठिनाईयों का सामना करना होता था, वो 'बौळ्या' जी की 'छब्बीस जनवरी' कविता में आप भी देखें-


'झांकि-मांकि देखि कैकि, जरा भैर आया,
धक्का-मुक्की होण बैठि, स्याळि रिबिड़ि ग्याया।'
....
'पुलीसा क डंडा तब, जगा-जगा म खाया,
रिबिड़ि-रिबिड़ि कैकि तब, स्याळि मीलि ग्याया।'


उत्तराखंड बनने के बाद सबसे बदहाल हालत किसान की हुयी है। ज्यादा दशक नहीं बीते हैं कि गांव में सुबह होते ही खेत-खलिहान और गुठ्यार में खेती-किसानी की बातें शुरू हो जाती थी और देर रात तक ये बातें थमने का नाम नहीं लेती थी। गांव में बातें तो आज भी होती हैं पर खेती-किसानी की नहीं वरन बंदरों, बाघ और सुवरों के आतंक और मनरेगा में अपनी घ्याड़ी पक्की करने की। राज्य बनने से पहले पहाड़ी गांव के लोग किसान थे आज वे 'मनरेगा के घ्याड़ी मजदूर' हैं।


कवि जयानन्द खुकसाल 'बौळ्या' का पहाड़ी किसाण 'इलमतु दादा' आज गांव में 'मनरेगा मजदूर' बन गया है। पचास के दशक में कवि 'बौळ्या' जी ने उसी पहाड़ी किसान के खेती-किसानी के प्रति मेहनत, समर्पण और सकारात्मकता को 'इलमतु दादा' कविता में बखूबी दर्शाया था। यह जनप्रिय कविता तब कवि सम्मेलनों की शोभा और आकाशवाणी से कई-कई बार प्रसारित होती थी।
आप भी आनन्द लीजिए-


कुरता चिरीऊं अर ट्वपला फट्यूं चा,
क्वाटा को बौंळो सफाचट हुंयूं च,
नी चा घुन्ड मा सुलार, तैको फट्यूं चा,
झपड़म्-झपड्म हिटणा लग्यूं चा
रकर्याट कैकी पुंगड़ौं म आन्दा,
इलमतु दादा भदोड़ा बांदा।