पलायन - ए - चिंतन, उत्तराखंड 


|| पलायन - ए - चिंतन, उत्तराखंड|| 


ये पर्वतीय उत्तराखंड लगातार उजड़ रहा है। हमको खाली होती लम्बी घरों की कतार( बाखली) और दिनों दिन सुन्न होती गांवों की आवाज को समझकर अतीव दुःख होता है। कितने ही लेखक पत्रकार समाज सेवक बन गये। कितने ही राजनैतिक कार्यकर्ता लगातार लोगों के बीच क्या क्या बातें करने जाते हैं लेकिन इस प्रदेश के वास्तविक मर्म को कोई नहीं छेड़ना चाहता। क्योंकि अगर आप इसको दुबारा आबाद देखना चाहते हैं तो आपको जिम्मेदारी लेनी होगी। जिम्मेदारी तो सरकार तक नहीं ले रही फिर आप उसके झंडा बोकू कार्यकर्ता मात्र हैं। जैसा वे चाहेंगे आपको वही करना होता है। आप जैसे ही किसी पार्टी में जाते हैं आपकी व्यक्तिगत आजादी खत्म हो जाती है।


देवता उपेक्षित हुए,घर खाली हुए,देश परदेश में नौजवानों को क्या क्या करके गुजर करनी पड़ रही लेकिन किसी भी संस्थान ने इसको खुलकर नहीं बोला और अपनी गोड़ गणित चलाते रहे।
अब तो जो उन दिनों आन्दोलन में रहकर आज दो अभी दो बोलते थे वे भी भूल गये आखिर ये राज्य हमने माँगा क्यों था? हमारी क्या जिम्मेदारी है?


हम पर्वतीय उत्तराखंड की बात किसी विद्वेष से नहीं बड़े कष्ट से और वर्तमान स्थिति की भयावहता देख कहते हैं। हमको मालूम है बार्डर खाली हो रहा है। फ़ौज के सहारे आप अपने क्षेत्र की रक्षा तब तक नहीं कर सकते जब तक मजबूत नागरिक आपकी मदद में खड़े न हों।


अब नदी खोदने वाले,पत्थर बेचने वाले,शराब घर घर भेजने वाले,लीसा लकड़ी के तस्कर और खनन माफिया ही हमारे भाग्य विधाता बन गये हैं। उनको अभी सब खाना है। अगली पीढ़ी को वे मैदान में उतार चुके। वे अपने को तभी पहाड़ी बोलते हैं जब उनको कुछ लूटना होता है। ऐसे में हमारी पीढ़ी को ये निर्णय करना होगा कि उत्तराखंड का विकास कैसा हो?क्या जवाबदेही ली जाये?कैसे इन हालातों से मुक्ति हो?


अगली पीढ़ियों के लिये पर्वतीय उत्तराखंड का कुछ बचाना है तो खुद जमीन पर उतरकर कार्य करना होगा। यकीनन राजनीति भी बदलने की जिम्मेदारी लेनी होगी। ये राज्य कैसा हो और कैसे फिर से आबाद हो इसकी जिम्मेदारी हमारी पीढ़ी की है। जिसने गाँव को जिया है और जिसने जंगल पानी मिट्टी को अपनाया है। आज प्रवासी हों या रहवासी विचार अवश्य कीजिये वरना हमारे हाथ खाली हो रहे और हमारे सपनों का उत्तराखंड हमारे हाथों से निकलता जा रहा।   !जय नंदा जय हिमाल!