उन गांवों की परम्परा याद रखने लायक थी


||उन गांवों की परम्परा याद रखने लायक थी||


हम अणुमुक्ति यात्रा के दौरान उत्तर कन्नड़ जिले में कुछ घरों के मेहमान बने। उन्होंने हमारे पैर गर्म पानी से धुलाये वो भी परात में रखकर और फिर खाने को पान सुपारी दी। उसके बाद दक्षीण भारतीय लजीज शाकाहारी भोजन। सुना कि उनके क्षेत्र में ये परम्परा है कि हरेक घर में 5 बिस्तर मेहमानों के लिये रखे जाते हैं।


 


उत्तराखंड में इस समय बर्फबारी हो रखी है। देश भर से लोग इसे देखने आना भी चाहते हैं। हमारे प्रदेश में माहौल हमेशा ही शांत रहता है। लेकिन कम ही लोग आयेंगे। जो आयेंगे भी वे बड़े होटलों में रहेंगे। गाँवों तक आने लायक न रोडें बनी हैं और न ही गांवों का माहौल इस लायक है कि वहाँ कोई आये क्योंकि हमारे लोग खुद को बहुत बड़ा समझते हैं। उनको अभी ये लगता है कि लूटना ही व्यापार है। उपर से टैक्सी वाले,चाय के या खाने के होटल वाले,आसपास के लोग आने वालों के साथ कोशिश में रहते कि कुछ झाड़ पोछ लिया जाये। दुकानदार ऐसे अकड़ के बात करते हैं जैसे पर्यटक के उपर अहसान कर रहे हों।


आसपास की गंदगी और जो अन्य मूर्खताएं हैं उनको अपनी शान समझने वालों के पास कौन आना चाहेगा? सरकार नामक तन्त्र भी बेहिसाब मूर्खता से अपने को चला रही है वरना बहुत सी जगहें हैं जहाँ आज हमारे देश भर के लोग,बहुत आनन्द से,परिवारों के साथ आकर हिमालय,प्रकृति और इस पुराने साल की विदाई का आनन्द ले सकते हैं।


जितना विशाल पर्यटन क्षेत्र उत्तराखंड के पास है शायद ही किसी और प्रदेश में ऐसा शांत सुरम्य इलाका हो। गढ़वाल हो या कुमाऊ या फिर हिमालयी फुटहिल का क्षेत्र अभी इनका ढांचागत और मानवीय क्षमता का विकास होना शेष है।


यदि उत्तराखंड को ग्रामीण,प्राकृतिक पर्यटन का हब बनाना है तो आतिथ्य के आलावा व्यापक समझ विकसित करनी होगी। कोई किसी के गोठ में यूँ नहीं रहेगा। उसे ये जगह अपनी घर जैसी लगनी भी चाहिये। सारे देश में,महानगरों में नौकरी के लिए दौड़ते हो। जमीन खरीदने वाले के बर्तन भांडे धोते हो। कभी सोचा यदि हमने मिलकर अपने गाँव जंगल पानी दुकान रास्ते घर को ठीक से रहने लायक बना दिया तो हमको किसी की नौकरी करने नहीं जाना पड़ेगा।


यूँ देश के हरेक प्रान्त में एक खासियत है। लेकिन अपने उत्तराखंड की बात और है। अब कैसे बतायें कि नैनीताल मसूरी ही उत्तराखंड नहीं है? समझिये