उपभोग की सस्ती, सुलभ और शुद्ध वस्तुएं

||उपभोग की सस्ती, सुलभ और शुद्ध वस्तुएं||


भारत का एक बड़ा तबका आज भी अफवाहों और अंध विश्वास की नीव पर खड़ा है। इसमें पढे लिखे, अनपढ, रूढीवादी और खुद को प्रगतिशील कहने वाले सभी प्रकार के लोग शामिल है। अंध विश्वास और शराब को लेकर हमारे देश में लगभग एक जैसी ही भ्रांतियां है जो एक को नायक और दूसरे को खलनायक की तरह पेश करती है। यह सपष्ट है कि अंध विश्वास ने अपने यहाँ भतेरों को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रुप से मालामाल किया है। बड़ी बुराई तो अंध विश्वास है लेकिन भावनाओं का भय बताकर नेता लोग अंध विश्वास की इस मुहिम में बढ चढ कर भागीदारी करते हैं। क्या आपने कभी किसी नेता को अंध विश्वास के खिलाफ सड़को पर उतरते देखा है? नहीं न? लेकिन शराब के खिलाफ जब नेता चाहे, आंदोलन शुरू हो जाता है।


हालांकि शराब को हेय दृष्टि से देखने वालों की तादात ज्यादा नहीं है और इससे देश में रैवेन्यूं का एक बड़ा भाग आता है लेकिन फिर भी चतुर और चंट नेता लोग इसे जब तब मुद्दा बनाकर जनता, खासकर महिलाओं को अपनी तरफ कर उनके वोट झटक लेते हैं और बाद के समय में शराब आंदोलन से जुड़ी नीरीह जनता को पता भी नहीं चलता कि सत्ता में आने के बाद कब उनके आंदोलनकारी नेता मय नौकरशाहों के शराब माफियाओं की झोली में कब चले गये। पौंटी चड्ढा तो याद ही होगा न आप सभी को? अंध विश्वास की तरह ही शराब का भी दुनियां में एक बड़ा बाजार है और मुझे ऐसा लगता है कि हमारा देश इस फेरहिस्त में अव्वल नंबर पर ही होंगा।


नशे के नाम पर भारत का तथा कथित आदर्शवादी तबका नाक भौं सिकोड़ लेता है।


हाल के दिनों लोग उत्तराखंड में भांग की खेती की आलोचना में लंबे लंबे लेख लिख कर सरकार की लानत मलानत कर रहे थे। दर असल भांग के पौधे के बारे में हमारी जानकारी आज भी उसके पत्तों से उतारे गये सुल्फे या चरस तक ही सीमित है। दुनिया की हर शय में कमियां हैं, साँपों में कोबरा बहुत खतरनाक होता हैं लेकिन कैंसर जैसे भयानक मर्ज से निपटने के लिए उसके जहर से दवा तैयार की जाती है। भांग का भी हम फिलहाल चिलम वाला पक्ष देख रहे हैं जो कि सचमुच नुकसानदायी है। लेकिन इसके अलावा भी तो इस पौधे की कुछ खासियतें हैं जो खेती किसानी से जुड़े लोगों के रोजगार का साधन बन सकती है। हम तो उसके दूसरे पहलू पर गौर ही नहीं चाहते। भांग के बीज में, जिसे पहाड़ के लोग पारंपारिक रूप से चटनी और रोटी में भर कर पीढियों से खाते आ रहे है, हाई प्रोटीन पाया जाता हैं। आधुनिक विज्ञान इसका उपयोग अनेक प्रकार की बीमारियों के निदान हेतु कर रहा हैं। दूसरे, भांग के पौधे से निकलने वाले रेशे से ऊंचे दर्जे का फेब्रिक बनाया जा सकता है।


शराब को लेकर भी अपने लोगों का नजरिया कुछ ऐसा ही है। एक जमाने से शराब खश बाहुल्य महासू क्षेत्र का मुख्य पेय और माघ महीने में कच्चे चमड़े से बनी गेंद को ठोकरों पर रख कर खेले जाने वाला खेल गिंदूड़ा मुख्य खेल रहा है। हालांकि हजारों साल पहले काकेशस की तलहटी से पश्चिम की ओर निकले उनके बिरादरों नें जहाँ फुटबॉल नाम देकर विश्व व्यापी बना दिया वहीं शराब बनाने की विधि को भी नामचीन कारोबार में तब्दील कर दुनिया भर में फैलाया लेकिन दक्षिण एशिया में स्नातन और ईस्लाम परस्तों ने खेलों और शराब को हमेशा हेय दृष्टि से देखा। ठस धार्मिक मान्यताओं के चलते शराब बनाने की पारंपारिक विधियां धीरे धीरे विलुप्त होने लगी। रही सही कसर सरकार ने रेवेन्यूं के फेर में पारंपारिक शराब बनाने को प्रतिबंधित कर पूरी कर दी।


स्वदेशी खेलों का प्रोत्साहन तो खैर कभी हमारे समाजों की प्राथमिकताओं में रहा ही नहीं है, उसकी तो बात ही क्या करें लेकिन मध्य हिमालय के महासू क्षेत्र में मेलों ठेलों और त्यौहारों के मौकों पर हाल तक पारंपरिक तरीके से शराब बनाई और परोसी जाती रही है। मेलों ठेलों और त्यौहारों के अलावा आज भी महासू क्षेत्र के खेती किसानी और पशु पालन से जुड़े कुछ एक परिवारों में आपको घर में बनाई गयी शराब दवा के रुप में या शारीरिक श्रम की थकान होने पर एक निश्चित मात्रा में दी जाती है।


हो सकता है आपको शराब में बुराई नजर आए, हो सकता है कि शराब और उसकी तासीर का ईमानदार जिक्र आपको नशे का महिमामंडन लगता हो लेकिन जब हम समाजवाद की बात करते हैं तब हमारी प्राथमिकता में उपभोग की सस्ती, सुलभ और शुद्ध वस्तुएं हर उस वर्ग की पहुँच में होनी चाहिए जो इच्छुक हो। रही बात नुकसान की तो नुकसान तो रोज ज्यादा खाने से भी हो जाता है। फिर यह बदनामी अकेले शराब जैसे एंटीऑक्सिडेंट के हिस्से क्यों।