||गढ़वाली फ़ीचर फिल्म ‘पितृकुड़ा’ के बारे में||
गढ़वाली समाज को गौरवान्वित करती इस ऐतिहासक फिल्म निर्माण के आप भी भागीदार बनें।
कृपया इस लेख को पूरा पढ़ने का समय अवश्य निकालें।
देवभूमि के नाम से विख्यात गढ़वाल यूं तो विविधता एवं भिन्नता से समृद्व संस्कृति, संस्कार एवं परम्पराओं के निर्वहन के लिए दुनिया में अपना विशिष्ट स्थान व विशेष पहचान रखता है । मगर इन सब में गढ़वाल का अपने पूर्वजों के प्रति ‘पितृकुड़ा’ नामक एक ऐसी अद्भुत व अनोखी रश्म है जो शायद ही दुनिया के किसी अन्य समाज में निभाया जाता होगा।
गढ़वाल में ‘पितृकुड़ा’ (पितरों का घर) पत्थरों से बनाया हुआ एक बहुत छोटा मकाननुमा स्थान होता है, जो गाॅव के किसी ऊॅचे समतल स्थान पर पूर्वजों द्वारा सैकड़ों वर्ष पूर्व से स्थापित किया हुआ होता है । गढ़वाल में यह एक बहुत ही अनूठी परम्परा है कि जब परिवार के किसी बुर्जग का देहान्त हो जाता है तो उसके अंतिम संस्कार के बाद जो सबसे बड़ी रश्म होती है वह है मृतक को पितृ देवता मानकर उसे लिंग (एक छोटा सा गोल पत्थर) के रूप में पितृकुड़ा में स्थापित करना । मुतक के नाम का एक पत्थर का लिंग जो आम तौर पर गंगलोड़ा (नदी के किनारे मिलने वाले लगभग 5- 6 इंच तक के गोल पत्थर) होता है उसे उस छोटे से मकान के अंदर स्थापित कर दिया जाता है । पितृकुड़ा को एक प्रकार से ‘पितृ स्मृति स्थल’ भी कहा जा सकता है । यहाॅ एक बात गौर करने लायक है कि गढ़वाल की परम्पराएं कितनी विशाल व देव प्रसाद जैसी हैं । क्यांेकि दुनिया में जहाॅ सदियों से एक ज़मीन का टुकड़ा छीनने के लिए लोगों में बड़ी बड़ी लड़ाईयां हुई हैं, परिवार में खून कत्ल तक हुए हैं, व्यक्ति के मरते ही लोग उसके बैंक खाते व ज़मीन ज़यदाद से मुतक का नाम हटाने में तनिक भी देरी नहीं करते हैं। उसके नाम का ज़मीन का एक टुकड़ा तक नहीं छोड़ते वहीं केदारखण्ड का यह भूभाग जिसे गढ़वाल के नाम से जाना जाता है, वह पवित्र भूमि है जहाॅ व्यक्ति के मरने के बाद भी मृतक को पितृकुड़ा के रूप में स्थान दिया जाता है । एक प्रकार से उसके मरने के बाद भी उसे अंग संग मानते हैं और उसे उसकी ज़मीन से बेदखल नहीं करते ।
गढ़वाल में यह लोक मान्यता है कि यदि मृतक व्यक्ति को उचित समय पर विधि विधान से पितृकुड़ा में स्थापित नहीं किया गया तो उसकी आत्मा को मनुष्य योनि से मुक्ति नहीं मिलती । पितृकुड़ा की यह परम्परा कब और कैसे शूरू हुई उसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता । मगर हर गढ़वाली का पितृकुड़ा अवश्य होता है । पितृकुड़ा एक प्रकार से गढ़वालियों की मूल पहचान भी है । क्योंकि पितृकुड़ा से ही सही मायने में उस व्यक्ति के मूल गाॅव का पता चलता है। जिस गढ़वाली का पितृकुड़ा न हो तो उस पर गढ़वाली समुदाय शक करता है कि वह सचमुच में गढ़वाली है भी या नहीं । आज पहाड़ों से लगभग पलायन हो चुका है । लोग देश के कोने कोने और विदेशों में बस गये हैं । मगर पितृकुड़ा ही एक ऐसी परम्परा है जिसके लिए व्यक्ति को देश व दुनिया के किसी भी कोने से अपने गाॅव आना पड़ता है। मूल गाॅव से हटकर देश विदेश जहाॅ भी वह व्यक्ति निवास कर रहा हो वह सब काम कर सकता है मगर पितृकुड़ा वहाॅ नहीं बना सकता है। मान्यता यह है कि पौराणिक काल से चले आ रहे पितृकुड़ा को खण्डित (अलग) करने भारी पितृदोष होता है। ज्ञान विज्ञान, सूचना क्रान्ति एवं आधुनिकता के इस चरम युग में देश दुनिया की तरह गढ़वाल से बहुत कुछ बदला है मगर यदि कोई एक रश्म नहीं बदली तो वह है पितृकुड़ा की परम्परा । लोक मान्यता है कि हमारे पूर्वज पितृ देवता के रूप में परिवार की रक्षा करते हैं और घर में सुख शान्ति बढ़ाते हैं। गढ़वाल में पितरों को देवी देवताओं की भाॅति पूजा जाता है । गढ़वाल में एक कहावत भी है कि ‘मामा सि बढ़कि कुवि पौंणु नी, अर पितृ सि बढ़कि कुवि देबता नी’। अर्थात मामा से बढ़कर कोई मेहमान नहीं है और पितृ से बढ़कर कोई देवता नहीं है ।
व्यापक पलायन के वर्तमान दौर में पूर्वजों का स्मरण एवं पितृकूड़ा का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है। पितृकूड़ा की विशेषता और उसे परभाषित करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है । ‘पितृकुड़ा’ शब्द ही निश्चित रूप से जहाॅ आज गढ़वाल के 20 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को बहुत आकर्षित करता है उनके हृदय को छुता है वहीं नई पाढ़ी के मन मस्तिष्क में अपने पूर्वजों के प्रति ‘पितृकुड़ा’ के प्रति भी भारी जिज्ञासा प्रकट करता है । जो पलायन के कारण अस्तित्व हीन होते गढ़वाल के लिए एक सुखद उम्मीदों की किरण है ।
सम्मानित पाठकों, पलायन के कारण बुरी तरह लड़खड़ाते गढ़वाल के अस्तित्व को बचाने के लिए पितृकुड़ा रूपी वृक्ष जिसे पूर्वजों द्वारा रोपा गया था उसे खोजने, सींचने, संवारने और उभारने का वक्त आ गया है । इसीलिए मैंने ‘पितृकूड़ा’ पर एक गढ़वाली फ़ीचर फिल्म बनाने का निर्णय लिया है । जिसकी पटकथा पर वृहद स्तर पर मैं इन दिनों काम कर रहा है । अतिशीघ्र इस फ़िल्म के गीत गढ़वाल के वरिष्ठ लोकप्रिय गायकों से गवाये जायेंगे। तथा भगवान विष्णु श्री बद्रीनाथ के कपाट खुलने के अवसर पर फिल्म की शूटिंग शूरू हो जायेगी ।
दोस्तों यह प्रयास है कि फ़ीचर फिल्म ‘पितृकुड़ा’ इसी वर्ष अगस्त सितम्बर तक प्रदेश के सभी मल्टी पलैक्स सिनेमा हाॅल में रिलीज होगी । और वरिष्ठ जन जहाॅ बड़े रूपहले परदे पर अपनी परम्पराओं श्रद्वाओं के ‘पितृकुड़ा’ को देखकर रोमांचित होंगे, भाव विभोर होंगे वहीं नई पीढ़ी, नवयुवा गढ़वाल की इस समृद्व परम्परा को विस्तार पूर्वक देखकर गौरवान्वित होंगे । और यह सब देखकर मेरे हृदय को अत्यन्त प्रसन्नता होगी तथा इस बात पर गर्व होगा कि मैं वह सौभाग्यशाली हूॅ जिसे गढ़वाल के पौराणिक काल से चले आ रहे अत्यन्त दुर्लभ, समृद्व और अनूठी परम्परा ‘पितृकुड़ा’ पर फिल्म बनाने का सौभाग्य प्राप्त होगा ।
दोस्तों इस लेख के अंत में मैं आप सभी से एक अनुरोध करना चाहता हूॅ कि फिल्म निर्माण कार्य में हमसें जुड़ें । हमें सहयोग प्रदान करें । इस उद्देश्य पूर्ण कार्य का, इस अभियान का हिस्सा बनने में आपको गर्व की अनुभूति होगी तथा भविष्य की पीढ़ियां आप हम पर गर्व करेंगी ।
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