बड़कोट डायरी
भाग - 4 || इतिहास की पड़ताल||
ये सत्य है की इस भारत भूमि के मूलवासी वही आदीवासी समाज के लोग थे जो आज अनुसूचित जाति और जनजाति के रूप में जाने जाते हैं। विभिन्न नदियों के तटों पर फल फूल रही इन जनजातियों का वर्गीकरण नदी घाटी की सभ्यताओं के इतिहास में दर्ज है। ऐसी ही एक जनजाति का समाज कश्मीर की सिंधु नदी से झेलम, व्यास, सतलुज होते हुऐ टौंस, यमुना, गंगा से टिहरी के सिर्फ अंतिम भिलंग्ना वाले क्षैत्र तक था।
इसे एक सामाजिक ईकाई में समझने के लिए हमें आस पास मौजूद एक जैसी आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को समझना होगा। यह चार महासू और सात सोमेश्वर की आध्यात्मिक मान्यता का क्षेत्र है। महासू की सीमा कश्मीर से शुरू होकर बड़कोट में यमुना नदी के पार बनाल ठकराल पट्टी तक थी। जो अब राज रघुनाथ के रूप में परवर्तित है। और सात भाई सोमेश्वर में पहला कुल्लु से शुरू होकर जखोले, खरसाली, रैथल, मुखवा-धराली से होता हुआ अंतिम सोमेश्वर भिलंग्ना तक मान्य है। यह एकरूप विशाल चौखट भवन शैली, खानपान वाला सामाजिक क्षेत्र है। यह समान ऊनी वस्त्र विन्यास, भाषा, नृत्य-गान, पशु पालन तथा एक कृषि फसल उत्पाद वाला क्षेत्र था।
आज भी किन्नौर हिमांचल के अनुसूचित जाति के काश्तकारों के परिवार इस वर्णित क्षेत्र में देखे जा सकते हैं। जो आज भी आंशिक रूप से चलायमान हैं।
संपूर्ण रवांई सहित बड़कोट गांव के गढ़ में डंडाल और गुलाल रावतों के बसने से पहले वही मूल आदीवासी लोग छोटी छोटी छानियों में रहते थे जिन्हें हम आज अनुसूचित जाति के नाम से जानते हैं। गढ़वाल का इतिहास भी बताता है की पंवार वंश के राजा राजस्थान से आये थे उनके साथ कोई समाज भी आया होगा, लेकिन उन सबसे पहले भी यहां एक आदिवासी समाज था। इसलिए सीमावर्ती दोनों राज्यों का यहां एक जैसा अधिपत्य था। यह भी साक्ष्य हैं की दोनों राज्यों के रिश्ते नातों में यह रंवाई का भूभाग एक दूसरे को दान में अनेकों बार इधर उधर दिया गया। इसलिए गढ़वाल से पूर्व यहाँ हिमांचल की तरफ से भी अनेक राजपूत और ब्राह्मण जाती के लोग आकर बसे।
सन 1815 में टिहरी रियासत और ब्रिटिश गढ़वाल के विभाजन में बड़ी तादाद में लोग ब्रिटिश गढ़वाल से टिहरी रियासत में आये। पहले से सामान्य जनसंख्या घनत्व वाले इस क्षैत्र में यह जनसंख्या विस्फोट जैसा था। इसलिए लंबा पैदल सफर कर रहे मेहनतकश लोगों का एक बड़ा समूह भी अच्छी उपजाऊ धरती की तलाश में यमुना और टौंस नदियों के बीच के बड़े भूभाग में आकर बसने लगा। वे अपने साथ अपनी मान्यताओं का छोटा बड़ा हर समाज भी लाये। यहाँ के अनुसूचित जातियों और जनजातियों के श्रम सहयोग से सभी एक गांव बनाकर रहने लगे। तब जाकर टिहरी रियासत द्वारा इस क्षेत्र से राजस्व वसूलने के लिये राजगढ़ी में रंवाई परगना और थोकदारों के गांव बसाये गये। जिनमें नंद गांव प्रमुख था।
कालांतर में वर्ण व्यवस्था समाज के चलते यहाँ के मूलवासीयों को भारतीय संविधान ने आजादी के बाद अनुसूचित जाति एवं जनजाति में आरक्षण देकर चिन्हित किया। वर्षों पुरानी जनजाति के आरक्षण की मांग के फलस्वरूप सन 1960 तक यहाँ बस चुके लोगों को सन 2004 के पहले चरण में राज्य सरकार के पिछड़ा आयोग ने रंवाल्टा समुदाय की पिछड़ी जाति श्रेणी (OBC) में आरक्षित किया।
टिहरी रियासत में समस्त भूभाग का स्वामी राजा था। हम राजा की भूमी पर काम करने वाले किसान थे, जिन्हें स्थानीय भाषा में खायकर कहा जाता है। तब के स्थानीय आदिवासी जो आज अनुसूचित जाति के लोग हैं, हमारी इस रंवाई जैसी दूरस्थ उपजाऊ भूमी के नियमित खायकर किसान थे। आजादी के बाद कृषि भूमि पर मौजूद काश्तकारों को भू स्वामी का अधिकार दिया गया। इसीलिए आज भी रंवाई की अधिकांश भूमि अभिलेखों में मूल भू स्वामी एक अनुसूचित जाति का ही व्यक्ति मिलता है। जो सही मयानों में यहाँ के सबसे मूल नागरिक थे।