साँची कहे तो मारन धावे


||साँची कहे तो मारन धावे||


अभी हमने कुछ इस मंच का उपयोग करके बुनियादी चीजों पर सवाल उठाये जैसे जल जंगल जमीन पोषण आदि।


यकीनन कुछ जटिल सवालों पर सोचने की जरूरत है। जैसे नशा,बीमारी,समझ,कौशल,कुपोषण महिलाओं को लेकर,कुछ पशु तुल्य श्रम और जानवरों के लालन पालन जैसे सवाल भी समझने चाहिए।


ग्राम पंचायतों को नियोजन की सही समझ की जरूरत है और एक ऐसे स्वस्थ,पोषित,शिक्षित समझदार,स्वावलम्बी समाज की रचना का सपना समाज के सामने रखना है, जिससे भविष्य की पीढ़ियों का जीवन अधिक उन्नत हो सके।


हम सब अभी तत्काल बदलाव की उम्मीद नहीं करते। हमको समझना पड़ेगा जैसे जरूरी नहीं मांस खाकर ताकत आ ही जाये वैसे ही हमारे चिल्लाने से व्यवस्था को कोई फर्क पड़ता है ये भी नहीं है। कदम दर कदम बढ़ना पड़ेगा।


जलवायु में आ रहे बदलाव को लेकर हम कोई वैज्ञानिक तो हैं नहीं। लेकिन ये कुछ समझ सकते या अनुमान लगा सकते हैं कि इससे मानव में अधैर्य,हिंसा,लापरवाही,मूर्खता बढ़ती जा रही है। साथ ही श्रम के प्रति उदासीनता और संसाधनों को लेकर सजगता की कमी भी दिख रही है। हमको आने वाली पीढ़ियों को यदि अपनी समाज राजनीति आर्थिकी सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत सौंपनी है तो उस मशाल को जली हुयी और अधिक समय तक टिकने वाली बनाकर देना होगा। ये तब और मुश्किल हो रहा है जब प्राकृतिक संसाधनों से लोगों को उखाड़ने का कार्य बढ़ता जाता है।


हमारे हिमालय के परिजनों को ये बात अधिक सावधानी से समझनी होगी। क्योंकि भविष्य में हमारा कोई नामलेवा इसलिए नहीं होगा क्योंकि हम अपनी जड़ों को बिसरा चुके होंगे और खुद को श्रेष्ठ समझने के अहंकार में जड़ों की ताकत भी हमको नहीं मिलेगी। अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ।


हमारी पीढ़ी अगली पीढ़ी के लिये पक्के निशान छोड़कर जा सकती है। अपने अहंकार,व्यक्तिवादी,फरेबी जंजाल से आगे देखना शुरू करें ताकि हिमालय के गंगा नंदा के मायके को जिन्दा जीवंत उर्वर सदाजीवी रखा जा सके।