भगवान झूठ ना बुलवाये 


||भगवान झूठ ना बुलवाये||

 

पत्रकारिता की वाट लगाने में किसी ने भी कोई कमी नहीं छोड़ी । अपने-अपने खेमे और असलहों से जितना नुकसान पहुँचा सकते थे...पहुँचा दिया ।



 

एक तरफ थानवी, उर्मिलेश और उनके शिष्य रवीश, राजदीप, प्रसून, बरखा...तो दूसरी तरफ सुधीर, दीपक, अर्णब । एक ने सरकार विरोधी एजेंडे, प्रोपोगंडा को ही मूल स्वर बनाये रखा तो दूसरे ने सरकार के महिमा मण्डन को । इन दोनों के बीच सत्य , लोकतंत्र की तरह ही बेचारा और अवहेलित बिसूरता रहा।



 


इसकी शुरुआत वामी-कांगी खेमे से हुई । यदि आप 2014 से इसे शुरू हुआ मानते हैं तो आप भूल कर रहे हैं । इसकी शुरूआत तो 2002 से ही हो चुकी थी । राजवंश द्वारा उपकृत पत्रकारीय जगत जो दशकों तक सरकार प्रायोजित एकतरफा "सिख्ख नरसंहार " को दंगा लिखता -छापता रहा वो 2002 में फुल्ली ऐक्टिव हो गया था गोधरा के प्रतिक्रिया स्वरूप हुये गुजरात दंगो पर । हिंदुत्व और उसके नवीन प्रतीक बन उभरे नरेन्द्र दास मोदी निशाने पर थे । निशाने लगाये जाते रहे । षणयंत्र का ताना-बाना दस जनपथ से होते हुये अंतराष्ट्रीय मंचो तक बुना जाता रहा लेकिन इस कोशिश में अनचाहे में ही राजवंशीय चाटुकार धड़ा मोदी को ही महा नायकत्व की छवि देता रहा । उसने सिलसिलेवार हमले कर मोदी को गुजरात से इतर राष्ष्ट्रीय फलक तक पहुँचा दिया . . .



 

मै बार-बार कहता हूँ कि मोदी की अनवरत् विजय यात्रा में भक्त कहे जानेवाले जन समर्थन से अधिक योगदान उन मूर्ख गुलामों, चाटुकार पत्तलकारों का रहा जो सूर्योदय दस जनपथ के गलियारे से होना माने बैठे थे ।



 

खैर . . 2014 में ऐतिहासिक जनाधार से गुजराती मोदी का दिल्ली तक आ पहुँचना ह्रदयाघात से कम न था उस गुलाम,चाटुकार वर्ग के लिए।



 

2014 के ऐतिहासिक घटनाक्रम ने राजदरबारी पत्रकारों में कोहराम मचा दिया । जो कुछ हुआ अप्रत्याशित था । लगभग दो दशकीय प्रोपोगंडा धुंआ-धुंआ हो उठा । जलन की गंध तो बाहर आनी ही थी...

 

अभी मोदी सरकार शपथ भी न ले पाई थी । नीति संबंधी कोई चर्चा भी न हुई थी कि घामड़ मीडिया दुष्प्रचार का खार-मंजन चालू कर बैठा । असहिष्णुता, पुरुस्कार वापसी के बहाने भोंथरे हो चुके हथियारों को धार दी जाने लगी । कन्हैया, जिग्नेश, हार्दिक,उमर की शक्लों में सियासत की नई विषैली पौध तैयार की जाने लगी । मैगसूसू पाड़े जैसे लोग चरित्र ही नहीं टीवी स्क्रीन तक "ब्लेक" करने पर आमादा हो उठे । कहीं भी घटित होने वाली अप्रिय घटना पर मीडियाई ट्रायल, अकादमिक भौकाल खड़े किये जाने लगे । रोहित वेमुला के निजी अवसाद को राष्ट्रीय चिंता और विमर्श दिया जाने लगा । जेएनयू के राष्ट्रद्रोही तत्वों को ग्लेमराईज कर कृत्रिम इकोसाउंड खड़ा कर दिया गया । सवाल पूछ्ने की आजादी को बवाल रचने की स्वछंदता बना दिया गया । नैतिक एंव नागरिकीय चरित्र में बौने किरदारों को लोकतंत्र और संविधान का प्रहरी जता-बता राष्ट्र भक्ति को ही प्रश्न चिंहित किया जाने लगा। जिसका निर्लज्जतम उदाहरण पुलवामा हमले के पश्चात का घटनाक्रम रहा । जब देश आक्रोशित था । सरकार घात पर प्रतिघात की व्यूह रचना पर मंत्रणा कर रही थी तब . . वही राजदरबारी दलाल मीडिया दुश्मन देश के वजीर ए आज़म मियाँ ईमरान की इमेज मेंकिंग के साथ उनके लिये शांति का "नोबल पुरूस्कार' जुगाड़ने के जतन में था । असंवैधानिक धारा " 370" के खात्मे पर भी अंतराष्ट्रीय मंचों तक इन बेशर्मो का प्रपंच छुपा न रह सका था।



 

चुनाव आयोग, सर्वोच्च न्यायालय, संसद सहित तमाम संवैधानिक ढांचों पर सुनियोजित प्रहार किया जाता रहा । भ्रम, भय सृजित कर अंसतोष को विरोध की जगह विद्रोह का विध्वंसक स्वरूप दिया जाने लगा । जिसकी परिणती एनआरसी, सीएए के ज़ाहिलाना, हिंसक, गैर लोकतांत्रिक विद्रोह के रूप में हुई जो आज कोरोना के आपदाकाल में भी वर्ग विशेष द्वारा "असहयोग" के रूप में जारी है . . .



 

यह सब किया मीडिया के उस धड़े ने जिसका स्नायु तंत्र दशको तक राजवंश से आक्सीजन ग्रहण करता रहा। ऐसे में दूसरे खेमे के मीडिया का भी मुखर होना स्वाभाविक था । राष्ट्रवाद , राष्ट्रहित की धुरी पर उस खेमे ने भी ख़म ठोंका। सरकार और मोदी के कसीदे गढ़े । सफलताओं का महिमा मंडन झ्स तरह किया गया मानो जो कुछ भी हो रहा था वह अभूतपूर्व था । इन्होंने भी निशाने पर लिया उन चेहरों और विषयों को जो इनके राष्ट्रवाद , राष्ट्रहित की परिभाषा से तनिक भी इधर-उधर होते दिखाई दिए।



 

फिर जो हुआ वो सबके सामने है... कर्कश बहसें, जहरीली मुस्कानों में छुपे तंज, निर्लज्ज दोषारोपण । इन सबके बीच दबा-सहमा सच और अर्थहीन होती जा रहीं सूचनाएं।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है