नई- नवेली दुल्हन को नहॉ ही दिखाया जाता था
||नई-नवेली दुल्हन को नहॉ ही दिखाया जाता था||


हम इसे 'नहॉ' बोलते हैं । गाँव में आई नई- नवेली दुल्हन को भी सबसे पहले नहॉ ही दिखाया जाता था। शादी में भी लड़की को नहॉ से पानी लाने के लिए एक गगरी जरूर मिलती थी। अपना नहॉ पत्थर और मिट्टी से बना होता था। एक तरह से जमीन के अंदर से निकलने वाले पानी के स्टोरेज का अड्डा था। इसमें अंदर-अंदर पानी आता रहता था। हम इसको 'शिर फूटना' भी कहते थे। मतलब जमीन के अंदर से पानी का बाहर निकलना।

 

नहॉ को थोड़ा गहरा और नीचे से साफ कर दिया जाता था ताकि पानी इकट्ठा हो सके और मिट्टी भी हट जाए। कुछ गाँव में नहॉ के अंदर चारों ओर सीढ़ीनुमा आकार दे दिया जाता था। यह सब गाँव की आबादी और खपत पर निर्भर करता था। हमारा नहॉ घर से तकरीबन एक किलोमीटर नीचे 'गधेरे' में है। सुबह- शाम नहॉ से पानी लाना बच्चों का नित कर्म था। बारिश हो या तूफान नहॉ से पानी लाना ही होता था।

इस्कूल जाने से पहले नहॉ से एक डब्बा या 'गागर' (तांबे की गगरी) पानी लाना नियम था। ईजा रात को ही कह देती थीं,'नहॉ बे पाणी ल्या बे धर दिए तबे इस्कूल जाए हाँ'। सुबह आँख मलते हुए जब हम पानी लेने जाते थे तब तक ईजा 2 गागर पाणी ला चुकी होती थीं। सुबह चार- पाँच बजे से लोग नहॉ पानी लेने चले जाते थे।

 

शाम को दिन छिपने के बाद सारा गाँव नहॉ में ही उमड़ आता था। इधर से डब्बा फतोड़ते (डब्बा बजाते नहीं फतोड़ते थे) हुए मैं जा रहा हूँ तो वहाँ से कमलेश और भुवन आ रहे हैं। ईजा डब्बे की आवाज सुनकर गाली देती थीं कि 'फोड़ दें हाँ डबी कें, आ तू घर आ आज'। थोड़ी देर नहीं बजाते थे फिर जहाँ से घर दिखना बंद हो जाता डम- डम शुरू कर देते थे।

 

शाम को नहॉ में 1से 2 घण्टा बैठते थे। नहॉ सामूहिक झगड़ों और देश- विदेश के ज्ञान को प्रदर्शित करने का केंद्र भी था। कभी-कभी नहॉ में डिब्बे और कंटर बजाकर जागरी लगाते थे। मैं बुबुजी के साथ जागरी लगाने जाता था तो यहाँ भी जागरी की आगवानी मुझे ही करनी पड़ती थी। यह बात जब भी ईजा को पता लगती थी तो, घर पर 'सिसोंण' (बिच्छू घास और कंडाली) तैयार रहता था। पानी का डब्बा गोठ रखते ही जैसे ही अंदर को कदम बढ़ते.. झप एक झपाक ईजा लगा देती थीं... आजी लगाले नहॉ पन जागेरी... न ईजा न... भो बे नि लगुँल..नहॉ पन जब 'मसाण' (भूत) लागल न तब पत... ओ ईजा अब न न न.... कहते- कहते तीन- चार झपाक लग ही जाते थे। तब अम्मा आकर बीच बचाव करती थीं।

 

अगले दिन फिर शाम को बैट- बॉल खेलने 'तप्पड'( मैदान) चले जाते थे। दिन ढलने के बाद वहीं से पानी लेने नहॉ चल देते थे। जब गांव के सब बच्चे नहॉ पहुंच जाते थे तो फिर पहले दिन लगे सिसोंण का बदला गाली देकर निकालता था.. जाल म्यर ईजें कें बात ऊ घुरि जो.. वॉक पाणी गागर लफाई जो..फेल हैं जो ऊ...मन का सब गुब्बार फेर कर कंधे में पानी का डब्बा रख घर चल देता था।

 

अक्सर ईजा नहॉ से लेट आने के लिए फटकार लगती थीं। कई बार नहॉ से लौटते हुए रात हो जाती थी तो रास्ते में बाघ से भेंट हो जाती थी। उसके बाद तो 10-15 मिनट का रास्ता हाँफते- हाँफते 5 मिनट में ही पूरा हो जाता था। एक -दो बार तो डर के मारे पानी का डब्बा भी गिर गया था। ईजा कहती थीं कि पठ अन्यार में आ मैं छै कदिने बाघ खाल... पर यह रोज का था। ईजा की मार, गाली खाने और बाघ से डर के बावजूद भी नहॉ से अंधेरा होने से पहले घर जाने का मन ही नहीं करता था।

 

अब नहॉ खाली और गाँव वीरान पड़े हैं। घर-घर पर नल लग गए हैं। गधेरे पानी को और गाँव इंसान को तरस रहे हैं। आज भी ईजा सुबह-सुबह पानी नहॉ से ही लाती है। हर सुबह गगरी सर में रख नहॉ चली जाती है। कहती है- नल के पानी में स्वाद नहीं आता है, न 'तीस' (प्यास) मिटती है. अपने नहॉ का पानी तो मीठा होता है।

 

ईजा को अब भी नहॉ का पानी ही अच्छा लगता है जबकि दुनिया बिसलेरी और केंट आ रो पर पहुंच गई है।