अव्यवस्था के विरोध में मैं हमेशा खड़ा रहा

||अव्यवस्था के विरोध में मैं हमेशा खड़ा रहा||




‘सामाजिक जीवन में आम नागरिकों के साथ, मनसा - वाचा - कर्मणा अन्याय/अव्यवस्था के विरोध में मैं हमेशा खड़ा रहता हूं।

 

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी वरिष्ठ आई.पी.एस. अधिकारी एवं साहित्यकार श्री चमन लाल प्रद्योत का जन्म 3 मई 1936 को ग्राम- भीमली तल्ली (पालसैंण तोक), पट्टी- पैडुलस्यूं, जनपद- पौडी गढवाल में हुआ। प्रद्योत के पिता बूथा लाल और माता दीपा देवी का एक सामान्य किसान परिवार था। जब प्रद्योत लगभग तीन साल के थे तो उनके माता-पिता सपरिवार पालसैंण तोक छोड़ कर गोदीगदना तोक में नया मकान बना कर रहने लग गये। अन्य ग्रामीणों की तरह ही खेती, पशुपालन के साथ राजमिस्त्री के कार्य से परिवार का भरण-पोषण होता था।

 

शिक्षा-

विकट आर्थिक अभावों के रहते हुए प्रद्योत अपनी 9 साल की उम्र तक स्कूल नहीं जा पाये थे। प्रद्योत लिखते हैं कि ‘मेरा मन करता कि मैं भी स्कूल में होता तो कितना अच्छा होता। मैं ललचाता। ........ मैं दिवास्वप्न देखता और अपने को स्कूल में बच्चों के बीच पाता। .... तभी जानवरों का ख्याल आता और हड़बड़ाहट में मेरी तंद्रा टूट जाती और मैं फिर चरवाहा बन जाता। मेरी स्कूल जाने की तीव्र इच्छा, वर्षों इसी तरह ललकती रही और उसे आकाश से तारे तोड़ने के समान समझता रहा।’

 

(‘मेरा जीवन प्रवाह‘ आत्मकथा, चमन लाल प्रद्योत, पृष्ठ-35)



अध्ययन के प्रति उनकी अटूट लगन को देखते हुए उनके पिता ने देर से सही एक शुभदिन उनको गांव के नजदीक घोड़ीखाल स्कूल में प्रवेश दिलाया। उनकी विलक्षण प्रतिभा को देखते हुए प्रधानाध्यापक ने उन्हें सीधे तीसरी कक्षा में प्रवेश दिया। यह उत्साहजनक था कि वे थोड़े ही दिनों में कक्षा के सर्वाधिक मेघावी छात्र घोषित हो गये। पांचवी कक्षा के बाद उनकी शिक्षा कण्डारा विद्यालय में हुयी। पांचवी कक्षा में अपने केन्द्र से प्रथम तो आठवीं कक्षा में गढ़वाल जनपद (वर्तमान पौड़ी एवं चमोली जनपद) के प्रथम 10 छात्रों में स्थान अर्जित करके उन्होने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। जीवन के कठोर संघर्षो की परवाह न करते हुए एक गम्भीर अध्येता की तरह उन्होनें सन् 1953 में हाईस्कूल एवं 1955 में इण्टरमीडिएट की कक्षायें मैसमोर इण्टर कालेज, पौडी से उत्तीर्ण की। तत्पश्चात डी.ए.वी. कालेज, देहरादून से 1957 में हिन्दी, अंगे्रजी एवं राजनीति विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। प्रद्योत आगे की पढ़ाई जारी रखना चाहते थे, परन्तु आर्थिक अभाव और उसके ऊपर पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति सचेत युवा प्रद्योत ने तत्काल सी.डी.ए. में कनिष्ठ डिवीजनल क्लर्क की नौकरी प्राप्त कर ली। साथ ही डी.ए.वी. कालेज, देहरादून से एल.एल.बी. की सांध्यकालीन कक्षाओं में प्रवेश लिया। अपनी काबलियत को प्रदर्शित करते हुए शीघ्र ही वे ओ.एन.जी.सी.में वरिष्ठ सहायक के पद पर चयनित हुए। ओ.एन.जी.सी. में कार्य करते हुए वे पंजाब के होशियारपुर (गंगरेट एवं मंहगरवाल क्षेत्र ) में वैज्ञानिक दल के साथ काफी समय तक रहे। पंजाब के ग्रामीण क्षेत्र को देखने एवं जानने का यह अवसर था। यह जानकर कि इलाहाबाद में उच्च राजकीय सेवाओं में चयन की तैयारी के लिए निःशुल्क प्रवेश दिए जा रहे हैं, प्रद्योत ने उच्च शिक्षा के लिए इलाहबाद की ओर प्रस्थान किया। इलाहाबाद से सन् 1959 में प्राचीन इतिहास में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की। प्रद्योत की हार्दिक इच्छा अध्यापक बनने की थी परन्तु यह इच्छा मन में ही रह गयी। प्रद्योत उच्च शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त सन् 1960 में राज्य प्रशासनिक सेवा (पी.सी.एस.) एवं 1962 में भारतीय पुलिस सेवा (आई.पी.एस.) में चयनित हुए।

 

सामाजिक आन्दोलनों से जुड़ाव-

विकट आर्थिक और सामाजिक परस्थितियों का मुकाबला करते हुए प्रद्योत की पहचान हमेशा एक मेधावी छात्र के रूप में रही। शिक्षा के प्रति उनका लगाव इतना जबरदस्त रहा कि छुटिट्यों में घोड़ीखाल-पौड़ी सड़क निमार्ण में मजदूरी करके उन्होने आगे की पढ़ाई के लिए फीस जुटाई। छात्र जीवन में पढ़ाई से इतर वे सामाजिक आन्दोलनों में भी भागीदार रहे। मेस्मोर इन्टर कालेज, पौड़ी में पढ़ते हुए ‘अखिल गढ़वाल हरिजन छात्र संघ’ के महासचिव रहे। सामाजिक विषमता और असमानता से उपजी समस्याओं के समाधान हेतु वे गोष्ठी, पदयात्रा और साहित्य के माध्यम से निरन्तर जन-जागरूकता का कार्य करते। आर्यसमाज एवं सर्वोदयी आन्दोलन से वे इसी दौरान जुड़े। विनोवा भावे के भू आन्दोलन से प्रेरित होकर वे उस समय के प्रमुख सर्वोदयी कार्यकर्ता मान सिहं रावत, भू भिक्षू (स्वामी योगानन्द) बलदेव सिंह आर्य, मणिक लाल टम्टा, बोथा सिंह तथा जयानन्द भारती आदि के साथ सक्रिय रहे। इस दौर में वर्ष 1955 की एक घटना महत्वपूर्ण है। इण्टर की परीक्षा देने के उपरान्त कई मित्रों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में जनचेतना हेतु पदयात्रा का कार्यक्रम बना। कई गावों का भ्रमण करते हुए यह दल लैन्सडौन तहसील में सिवली-खाटली पट्टी के जिवई गांव पहुंचा। भ्रमण दल को पहले से ही मालूम था कि शिल्पकारों को गांव के धारे से पानी लेने की मनाही है। सरकारी हस्तक्षेप के बावजूद भी गावं के सवर्ण शिल्पकारों को पानी देने को तैयार नहीं थे। प्रद्योत और उनके साथियों ने गांव के लोगों से इस वाबत वार्ता की। वार्ता के उपरान्त जब भ्रमण दल के लोग धारे में पानी पीने गये तो गांव के सवर्ण लोगों ने लाठियों से प्रहार करना शुरू कर दिया। शाम के धुंधले अन्धेरे में हुए इस अचानक हमले से कई पदयात्री घायल हुए। प्रद्योत को भी गम्भीर चोटें आयीं। अपने कुछ मित्रों के साथ वे रात को पंचचूरी गांव पहुंचे। अगले दिन नौगांवखाल में प्राथमिक उपचार कराने के बाद अपने-अपने घरों को पहुंचे। इस घटना की व्यापक निन्दा हुयी और लैन्सडोन तहसील में हमलावारों पर मुकदमा भी दर्ज हुआ। इस घटना का सुखद पक्ष यह रहा कि आखिरकार शिल्पकारों को धारे से पानी लेनेे का हक मिल ही गया। समाज में फैली सामाजिक विषमता के विरोध में यह एक सफल अभियान रहा। निर्बल वर्ग के हितार्थ प्रद्योत के प्रयास पौडी से स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद डी.ए.वी. देहरादून में उच्च शिक्षा ग्रहण करते हुए आर्य समाज से जुड़कर अग्रणी भूमिका में जारी रहे।

 

राजकीय सेवा

आई.पी.एस. में चयन के उपरान्त जब प्रद्योत पहली बार अपने गांव गये तो अपनी मां से मिली शिक्षा को उन्होने अपने जीवन परम ध्येय बना दिया। उन्हीं के शब्दों में ‘ ......मां से रोने का कारण पूछा। .....उसका विचार था कि पुलिस की नौकरी पकड़कर मैं लोगों को सताऊंगा, .....वह मुझे समझाने लगी, ‘बेटा इस अफसरी को छोड़। इससे बेहतर तो यह होगा कि तू कहीं बाबू या चपड़ासी बन जा...... मैने मां का समझाया और उसे आश्वस्त किया कि मैं, उसकी अपेक्षानुसार ही अपने पुलिस दायित्व का निर्वाह करूंगा।’

(मेरा जीवन प्रवाह आत्मकथा, चमनलाल प्रद्योत, पृष्ठ-64)



 

एक जिम्मेदार एवं संवेदनशील व्यक्तित्व चमन लाल प्रद्योत ने पुलिस अधिकारी के रूप में सहायक पुलिस अधीक्षक, कानपुर (1964) से भारतीय पुलिस सेवा के प्रशासनिक दायित्वों के निर्वहन की शुरूआत की। पुलिस अधीक्षक के पद पर प्रोन्नत होकर (1966) वे चार साल प्रतिनियुक्ति पर भारत सरकार की सेवाओं में रहे। इस दौरान वे पी.ए.सी. सिलचर, श्रीनगर (गढवाल) तथा एस.एस.बी. गैरसैंण में कार्यरत रहे। उत्तर प्रदेश के फतेहपुर, एटा, वाराणसी, सीतापुर एवं मुरादाबाद जनपदों में पुलिस अधिकारी के रूप में विभिन्न पदों पर कुशलतापूर्वक कार्य करने के बाद वे 1981 में पुलिस उप महानिरीक्षक, 1988 में महानिरीक्षक तथा 1992 में अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक उत्तर प्रदेश के पद पर आसीन हुए। राजकीय सेवा में प्रद्योत ने पी.एस.सी., एस.एस.बी., सिविल पुलिस, आर्म्ड पुलिस, रेलवे पुलिस तथा पुलिस सेवा में शोध, नियोजन एवं प्रशिक्षण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण एवं सराहनीय योगदान दिया है। पुलिस महकमे में कार्य करते हुए अधिकांशतया कई कटु अनुभवों से उन्हें गुजरना पड़ा। जातीय विद्वेष, स्वार्थपरिता तथा उच्च अधिकारियों के बेवजह के अहम ने प्रदयोत को अनेकों बार विचलित करने कोशिश भी की। परन्तु अपनी मां से विरासत में पायी शालीनता एवं धैर्य के गुण ने विषम परस्थितियों से उन्हें उभारा ही नहीं वरन भविष्य की चुनौतियों के लिए और भी मजबूत बनाया। ईमानदारी एवं कर्तव्यनिष्ठता के बलबूते पर वे हर पद एवं क्षेत्र में लोकप्रिय एवं योग्य अधिकारी ही साबित हुए। भारतीय पुलिस सेवा की 32 वर्षों की गौरवमयी एवं विशिष्ट उपलब्धियों के सेवाकाल के उपरांत आपने जून 1994 में अवकाश ग्रहण किया है। वर्तमान में प्रमुखतया साहित्य सृजन एवं सामाजिक संस्थाओं में सर्मपित भाव से दद्चित श्री प्रद्योत वसंत विहार, देहरादून में निवास कर रहें हैं।

 

साहित्य सृजन-

भारतीय पुलिस सेवा के समर्पित एवं लोकप्रिय अधिकारी प्रद्योत ने पुलिस सेवा के संदर्भ में ‘पुलिस के अधिकार’ एवं ‘सामाजिक व्यवस्था में पुलिस की भूमिका’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं हैं। हमारे देश के प्रजातांत्रिक समाज में पुलिस सेवा के दायित्वों एवं दर्दों को समझने के लिए ये पुस्तकें एक संदर्भ ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है। कुशल एवं योग्य पुलिस अधिकारी की ख्याति को अर्जित करते हुए प्रद्योत एक लोकप्रिय साहित्यकार भी हैं। उनके सम्पूर्ण लेखन में गजब की संवेदनशीलता का भाव है। अपने मन के भावों को उन्होनें सलीके सहेजकर उन्हें कविता एवं संस्मरणात्मक विधा के माध्यम से साहित्य में उद्घाटित किया है। ‘कसक’, ‘छोटे लोग-बड़े काम’, ‘वेदना के स्वर’ उनके चर्चित काव्य संग्रह हैं। ‘धूप-छाॅंव’ पत्र लेखन विधा में एक अनुपम कृति है। ‘यादें’ एक संस्मरणात्मक पुस्तक है। ‘मेरा जीवन प्रवाह’ पुस्तक आत्मकथा के रूप में हम सबकी कथा-व्यथा को उजागर करती है। ‘उत्तराखण्ड के शिल्पकार’ (सम्पादित) पुस्तक षिल्पकार समाज के प्रति वर्गीय असमानता के दशं और उसके निदान पर शोधपरख दृष्टि प्रदान करती है। ‘चिंतन के पल’, ‘मंथन के क्षण’, आत्मबोध, ‘यर्थाथ बोध’ आध्यात्मिक पृष्ठभूमि को लिए ललित निबंध विधा अनुपम कृतियां हैं।



 

बचपन से ही प्रकृति के विविध रंगों और स्वरूपों के प्रति मन में अथाह आर्कषण की भावना ने प्रद्योत जी की साहित्यिक अभिरुचि एवं प्रतिभा को निखारा। मेसमोर इन्टर कालेज, पौड़ी की सन् 1955 की वार्षिक पत्रिका में ‘प्रसून’ शीर्षक वाली कविता उनकी लिखी पहली प्रकाशित कृति थी। विद्यार्थी जीवन में साहित्यनुरागी प्रद्योत स्नातक स्तर पर तीनों भाषायें यथा- हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत विषय पढ़ना चाहते थे। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं हो पाया। मजबूरन संस्कृत विषय के अध्ययन से उन्हें वचिंत होना पड़ा। आज यद्यपि विद्यार्थी जीवन में उनकी लिखी रचनायें जीवन की आपाधापी में कहीं गुम हो गयी हैं परन्तु उनकी ताजगी अभी भी प्रद्योत जी की जुबान पर है। नौकरी करते हुए यत्र-तत्र लेखन से वे जुड़े रहे। साहित्य संसार में पांडित्य प्रदर्षन की परम्परा से दूर रह कर प्रद्योत प्रसाद, पंत, कबीर, कीट्स, शैली आदि से प्रभावित रहें हैं। प्रद्योत की साहित्यिक यात्रा को व्यवस्थित करने में प्रसिद्व साहित्यिकार डाॅ परिपूर्णानन्द वर्मा, डाॅ. गिरिराज सााह, डाॅ.महेश नाथ चतुर्वेदी, डाॅ. राजेन्द्र अवस्थी, डाॅ. गिरजाशंकर त्रिवेदी, श्री सुव्रत त्रिपाठी, श्री जनेश्वर मिश्र तथा डाॅ. नागेन्द्र ध्यानी ‘अरुण’ सहायक सिद्व हुए। नौकरी के दौरान ‘कादम्बिनी’ ‘अतएव’, ‘अस्मिता’, ‘वैचारिकी’, ‘जनवार्ता’ आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रद्योत की रचनायें पाठकों के मध्य बहुत लोकप्रिय हुयीं हैं। देहरादून में प्रद्योत के संरक्षण में ‘नवाभिव्यक्ति’ साहित्यिक संस्था का गठन हुआ है। साहित्य जगत में प्रद्योत की साहित्यिक यात्रा एवं योगदान को महत्वपूर्ण मानते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ.नागेन्द्र ध्यानी ‘अरुण’ ने ‘कवि प्रद्योत की काव्य-कला का षास्त्रीय अध्ययन’ शोधपरख पुस्तक लिखी है।

 

सामाजिक एवं राजनैतिक संगठनों में भागेदारी-

जीवन को सहजता से जीने में सिद्धहस्त श्री प्रद्योत ने प्रशासनिक सीमा से बाहर निकलकर समाज के विविध क्षेत्रों में अपनी सहभागिता एवं सक्रियता बनाये रखी है। साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं से उनका लगाव एवं जुड़ाव राजकीय सेवा के साथ- साथ रहा है। उत्तराखण्ड शोध संस्थान, नवाभिव्यक्ति, दृष्टिकोण,एवं अखिल गढ़वाल सभा जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं में उनकी उल्लेखनीय भागेदारी रही है। राजकीय सेवा से वर्ष 1994 में मुक्त होने के बाद देहरादून में रहते हुए प्रद्योत साहित्यिक, सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहने लग गये। उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। वे उत्तराखण्ड जन विकास पार्टी के संस्थापक वरिष्ठ उपाध्यक्ष रहे। उन्होने उत्तराखण्ड राज्य के प्रथम आम चुनाव वर्ष 2002 में उत्तराखण्ड जन विकास पार्टी से श्रीनगर एवं वर्ष 2007 के चुनाव में राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी से सेलाकुई विधानसभा क्षेत्र का चुनाव लडा।



 

प्रद्योत का योगदान सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से उत्तराखण्डी समाज के बुद्विजीवी वर्ग को सर्वागींण विकास हेतु सक्रिय करने में महत्त्वपूर्ण रहा है। उन्होने उत्तराखण्ड शोध संस्थान की लखनऊ इकाई के प्रथम अध्यक्ष के रूप में उत्तराखण्ड मूल के उच्च प्रशासनिक अधिकारियों, वैज्ञानिकों, जन प्रतिनिधियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, साहित्यकारों तथा उत्तराखण्ड के प्रवासी संगठनों को एक मंच पर लाकर उत्तराखण्ड के समग्र विकास के लिए दिशा निर्माण का प्रशंसनीय कार्य किया है। उनके संयोजन में उत्तराखण्ड के वन, जल, खनिज, पर्यटन, शिक्षा, ऊर्जा, रोजगार, संस्कृति आदि विषयों पर महत्त्वपूर्ण संगोष्ठियों का आयोजन किया गया। उत्तराखण्ड शोध संस्थान लखनऊ की शोधपरख पत्रिका ‘उत्तराचंल’ का प्रकाशन प्रद्योत की पहल पर ही हुआ। उत्तराखण्ड की विकास योजनाओं के नीति निर्माण में उक्त्त संगोष्ठियां एवं ‘उत्तराचंल’ पत्रिका उल्लेखनीय साबित हुयी हैं। उ.प्र सरकार द्वारा गठित उत्तराखण्ड राज्य निमार्ण पर बनी कौषिक समिति के प्रमुख परार्मशकर्ताओं में प्रद्योत का अग्रणीय योगदान रहा है। प्रद्योत बाद में उत्तराखण्ड शोध संस्थान की देहरादून इकाई के अध्यक्ष भी रहे। देहरादून इकाई के बुलेटन ‘रंत-रैबार’ का नामकरण प्रद्योत द्वारा किया गया है। प्रद्योत की पहल पर देहरादून इकाई के चिन्तन-मनन का बिन्दु ‘उत्तराखण्ड का आर्थिक पिछड़पन’ बनाया गया है। इस दिशा में आगे बड़ते हुए राज्य निर्माण के दौर में प्रद्योत जी की अध्यक्षता में जनसंगठनों ने कई महत्त्वपूर्ण आयोजन, संगोष्ठी, एवं कार्यक्रम सम्पन्न किये। यह उल्लेखनीय है कि राज्य निमार्ण के लिए वर्ष 1999 में देहरादून में आयोजित उत्तराखण्ड आन्दोलन से जुडे़ 35 जन संगठनों की सबसे वृहद एवं निर्णायक सम्मेलन की अध्यक्षता श्री प्रद्योत ने ही की थी। उस समय प्रद्योत ने जब अध्यक्षता करने में अपना संकोच व्यक्त किया तो आयोजक संगठनों के प्रतिनिधियों ने कहा कि आपकी निष्पक्षता जगजाहिर है इसलिए इस महत्त्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक बैठक के लिए आप ही सबसे बेहतर व्यक्तित्व हैं। वास्तव में प्रद्योत जी की सर्वस्वीकार्यता एवं लोकप्रियता उनकी सकारात्मक सोच और सबको साथ लेकर चलने की भावना रही है। यही कारण है कि वे बचपन से ही जन कल्याण एवं संघर्षों में अग्रणीय भागीदार रहे हैं।



 

राज्य निमार्ण के दौर में उत्तराखण्ड के सर्वागींण विकास में बुद्विजीवियों से लेकर आम नागरिक की सक्रिय भागेदारी की ओर बड़ते हुए प्रद्योत एवं अन्य चिन्तनशील लोगों ने 29 दिसम्बर 1999 को उत्तराखण्ड जन विकास पार्टी का गठन किया। प्रद्योत उत्तराखण्ड जन पार्टी के संस्थापक वरिष्ठ उपाध्यक्ष मनोनीत हए। प्रद्योत के संयोजन में उत्तराखण्ड जन विकास पार्टी ने सरकार एवं जन संगठनों के लिए उत्तराखण्ड राज्य के भावी स्वरूप पर महत्वपूर्ण रिर्पोटें तैयार की। संसद में प्रस्तुतीकरण के लिए एक प्राइवेट मेम्बर बिल का प्रारूप तैयार करना इसमें उल्लेखनीय है। उत्तराखण्ड राज्य के प्रथम विधान सभा चुनावों के बाद क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की शिथिलता से प्रद्योत बहुत आहत हुए। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री पी.ए. संगमा के आग्रह पर उन्होनें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। प्रद्योत को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में उत्तराखण्ड राज्य के वरिष्ठ उपाध्यक्ष के महत्वपूर्ण पद पर मनोनीत किया गया। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की उत्तराखण्ड राज्य के संदर्भ में नीति एवं कार्यक्रमों को बनाने के लिए गठित ऐजेण्डा कमेटी के प्रद्योत अध्यक्ष बनाये गये। प्रद्योत की अध्यक्षता में गठित इस कमेटी के क्षेत्रीय मुद्दों पर तैयार प्रस्ताव को पार्टी द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किया गया। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के उत्तराखण्ड दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक मंच के अध्यक्ष के रूप में उन्होने कमजोर समुदाय के हितार्थ उल्लेखनीय योगदान प्रदान किया है। वर्तमान में प्रद्योत कांग्रेस पार्टी की राज्य कार्यकारिणी के विशेष आमत्रित सदस्य एवं बौद्विक प्रकोष्ठ के वरिष्ठ उपाध्यक्ष के पद पर अपना अकादमिक योगदान दे रहे हैं।



 

चमन लाल प्रद्योत जी की उल्लेखनीय सामाजिक एवं साहित्यिक योगदान के लिए वर्ष 1997 में उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्धारा ‘विशिष्ट सम्मान’, वर्ष 1997 में उत्तराखण्ड शोध संस्थान द्वारा ‘पंडित गोविन्द बल्लभ पंत पुरस्कार’, वर्ष 2004 में शैलवाणी द्धारा ‘शैलवाणी समाज सेवा सम्मान’ वर्ष 2011 में उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा ‘गोविन्द चातक साहित्यिक सम्मान’ प्रदान किया गया।



 

निःसंदेह, जिस सादगी, प्रतिबद्वता, सर्मपण एवं सच्ची भावना से प्रद्योत जी ने मानवीय जीवन के शैक्षिक, साहित्यिक, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में अपना सर्वोत्तम योगदान दिया है वह हम सबके लिए एवं आने वाली पीढ़ी के लिए परम अनुकरणीय है। अपने जीवन के सार तत्व की मीमांसा करते हुए श्री चमन लाल प्रद्योत का कहना है कि ...........................मैंने न कोई बडे सपने देखे, न कोई महत्वकांक्षाए ही पाली। जो प्राप्त हुआ उसे विनम्रता/कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार किया और उसी में सन्तुष्ट रहा। जो नहीं मिला उससे निराश नहीं हुआ। लेकिन यह अहसास हमेशा साथ रहा कि जो भी और जब भी मिलेगा, वह कर्म ही का फल होगा। अतः कर्म-पथ पर डटे रहो, लापरवाह मत होओ और निराशा के चंगुल में मत फंसो। जीवनभर इसी सिद्धांत पर चला और बहुत कुछ मिला भी।

'मेरा जीवन प्रवाह’ आत्मकथा, चमन लाल प्रद्योत, पृष्ठ- 258)