बेबसी पीने वालों की
कि खुल गये हैं ताले,
आज मयखाने के।
छलकने लगें हैं जाम,
अब पैमाने से।
मय से दूरी का दर्द,
हम सह नहीं सकते,
सरे आम कहेंगें ये बात,
हम जमाने से।
कितनी तकलीफों से खुद को,
इतने दिन सम्भाले रखा।
कि मय के ग़म को,
सीने से लगाये रखा।
तुम क्या समझोगे,
बेबसी पीने वालों की।
बिना जल के,
मछली को तड़पाये रखा।
अब जो अवसर मिला हमें,
इससे मुहब्बत जताने का।
कि कितना प्यार है हमें,
मय और मयखाने से।
मय से दूरी का दर्द,
हम सह नहीं सकते,
सरे आम कहेंगें ये बात,
हम जमाने से।
बेशक ना मिले दो जून की रोटी,
इन सूखे होंठों की तरावट चाहिए।
इसी के साथ मिलता है सुकून हमें,
बस इसी की मुहब्बत का ऐहतराम चाहिए।नोट- यह कविता काॅपीराइट के अंतर्गत आती है कृपया प्रकाशन से पूर्व लेखिका की संस्तुति आवश्यक है
बेबसी पीने वालों की