गांव का जंगल और सरकारी पतरौंल
||गांव का जंगल और सरकारी पतरौंल||


आज बात- "पतरौ" और जंगलात की। 'पतरौ' का मतलब एक ऐसा व्यक्ति जिसे सरकार ने ग्राम -प्रधान के जरिए हमारे जंगलों की रक्षा के नाम पर तैनात किया हुआ था। रक्षा भी हमसे और वह भी हमारे जंगलों की। धीरे-धीरे हमें पता चला कि रक्षा की आड़ में हमारे जंगलों पर सरकारी कब्जा हो गया। अब सारे जंगलों को पत्थरों की दीवारों से कैद किया जा रहा था। कैद जंगल एकदम "चिड़ियाघर"(कितना विरोधाभाषी नाम है) की तरह लग रहे थे।

 

हमारे घर के बाहर कदम रखते ही जंगल था। अब तक वो हमारा और हम उसके थे। एक दिन 15-20 लोग आए और उन्होंने हमारे 'छन' (गाय-भैंस-बैल बांधने की जगह) के पास से 'खोई' (दीवार) देना शुरू कर दिया। अब वह जंगल, उसी के पत्थरों से कैद हो रहा था। हम नीचे खड़े होकर बस देख रहे थे। तब तक ये बात गाँव में फैल चुकी थी कि सरकार का ऑर्डर आया है- "अब सब जंगों में खोई चीणि ज्यालि, जोले जंगोवम घा, लकड़ काटे हैं जाल उकें जुर्वान ड्यण पडोल" (अब सभी जंगलों में दीवार बनवाई जाएगी, जो कोई घास और लकड़ी लेने जंगल में जाएगा उसे जुर्माना देना पड़ेगा)। उन लोगों ने फटाफट दीवार बनाई और ऊपर की तरफ बढ़ गए थे।

 

तभी उनमें से एक लंबे कद का आदमी हाथ में जलती हुई बीड़ी लिए हमारे घर की तरफ आया। हम उस व्यक्ति को पहली बार देख रहे थे। वह आस-पास के गाँव का भी नहीं था। वह आया और 'खोई' (आगे की दीवार) में बैठ गया। कुछ देर में उसने पानी मांगा। हमने उसे पानी दिया। वह बैठा-बैठा ऊपर-नीचे देख रहा था। तभी ईजा खेतों से आ गईं।

 

ईजा को देखकर उस आदमी ने हिंदी ज़बान में कहा-"कल से तुम्हारे गाय, भैंस, बैल अगर इस दीवार के अंदर गए तो 100 रुपए प्रति जानवर के हिसाब से जुर्माना पड़ेगा। अगर तुम लोग घास और सूखी व कच्ची लकड़ी काटने गए तो 300 रुपए 'दरांती' के हिसाब से जुर्माना होगा। साथ ही पुलिस को भी पकड़वा देंगे"। ईजा बस सुने जा रही थीं और अपने काम पर लगी हुई थीं। इतना कहने के बाद वो आदमी फिर वहीं चला गया जहाँ वो लोग "खोई" दे रहे थे।

 

उस आदमी के जाने के बाद ईजा ने कुछ देर तक ऊपर खोई और जंगल को देखा, फिर कहने लगीं- " च्यला कस राज एगो, हमर जंगों मैं हमें नि जास्कौन" (बेटा कैसा राज आ गया है, हमारे जंगल में हम ही नहीं जा सकते हैं)। ईजा "गुठयार" (बाहर जहाँ गाय-भैंस को बांधा जाता है) में से "मोअ सोरते"( गोबर निकालते) हुए कुछ-कुछ बोले जा रही थीं- "अब यूँ गोर-बाछुर कति चरनी, इनुकें भ्योव जे के घूरे ड्यूँ " (अब ये गाय-भैंस कहाँ चरेंगे, इनको खाई में धक्का तो नहीं दे दूँ)...

 

'मोअ' निकालने के बाद ईजा ने गाय-भैंस को "गध्यर" पानी पिलाने के लिए जैसे ही खोला वो रोज की तरह सीधे ऊपर जंगल की तरफ ही गए। ईजा उनको रोके लेकिन वो रुकें न। बड़ी मुश्किल से हमने उन्हें आगे जाकर रोका। ईजा गाय-भैंस से कह रही थीं- "त्यूमर लीजि ये खोई दी रहे, तब ले तुम उथां मरम छा" (तुम्हारे लिए ये दीवार दे रखी है, तुम तब भी वहीं जा रहे हो)। उसके बाद तो रोज का नियम बना गया था कि जब भी ईजा गाय-भैंस खोलती तो हम लाठी लेकर उस रास्ते पर खड़े हो जाते थे ताकि वो ऊपर जंगल में न जाएँ।

 

ईजा अब दूर-दूर घास लेने जाने लगी थीं। हम भी ईजा के साथ सूखी लकड़ी लेने जाते थे। ईजा रोज जंगल से गुजरते हुए कहती थीं- "कस दिन आ गई यूँ, आपण जंगोवम बे घा लकड़ ले नि काट सकोन" ( कैसे दिन आ गए, अब अपने जंगलों में से घास व लकड़ी भी नहीं काट सकते हैं)।

 

अब हमारे जंगलों की निगरानी के लिए पतरौ आ चुका था। वह जंगलों में घात लगाकर बैठा रहता था। अगर गलती से भी किसी के गाय-बैल दीवार लाँघकर अंदर चले गए तो तुरंत आता और पंचायत में खबर कर देता था। उसके बाद जुर्माना भरना पड़ता था। ऐसे कोई घास-या लकड़ी काटते हुए मिल जाए तो उनके 'दाथुल' (दरांती) छीन लेता, जुर्माना कर देता और बद्तमीजी अलग से करता था।

 

एक तरह से उसने घसियारियों का घास काटना दूभर कर रखा था। गाय-बैलों को दूर जंगल ले जाना पड़ता था, उसमें भी उनकी निगरानी कहीं ऊपर "सरकारी जंगों" में न चले जाएं। एक बार तो दूसरे गाँव की किसी महिला ने 'दाथुल' से पतरौ को मार भी दिया था। दिन बे दिन दुःखों की पराकाष्ठा हो रही थी, तो ये होना ही था। पतरौ इंसान से लेकर जानवरों तक के लिए आंतक का दूसरा नाम था। वह सुबह से लेकर शाम तक जंगलों में दुबक कर बैठा रहता। बीच-बीच में सीटी भी बजाता था। उसकी सीटी सुनते ही ईजा कहती थीं- "ऊ एगो रे पतरौ, भैंस-गोरू कें मथपन झन जान दिए" (वो पतरौ आ गया है, गाय-भैंस को ऊपर मत जाने देना)।

अब तक जो हमारे जंगल थे वो अब सरकारी जंगल हो चुके थे । ईजा इसे 'सरकारी जंगों' ही कहती थीं। यही वो दौर था जब हमारे गाँवों के आस-पास घास व लकड़ी बिकनी शुरू हुई। लोगों के पास खरीदने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। जिनकी ज्यादा घास होती थी वो बेचते थे। ईजा भी इधर-उधर से घास खरीद कर लाती थीं और कहतीं- "अब घा ले सुन है गो" (अब तो घास भी सोना हो गई है)..

धीरे-धीरे गाँव से पतरौ का आतंक खत्म हुआ। जंगल अब भी सरकारी हैं लेकिन पहले जैसी सख्ती नहीं है। अब कुछ दिनों के लिए "जंगल खोला" जाता है। तब ही आप घास व सूखी लकड़ी काट सकते हैं और गाय-भैंस चरा सकते हैं।

 

ईजा ने उन जंगलों को आजाद भी देखा और कैद होते हुए भी। कई बार ईजा कहती थीं- "हमर यूँ जंगों छि, यूँ ले हमु हेबे छिन हालि"( हमारे ये जंगल थे इन्हें भी हमसे छीन लिया है)। यह बात कहते हुए ईजा की नज़र जंगल की ओर ही होती है।

 

ईजा अब भी "छन" के पास बैठकर बहुत देर तक जंगलों को निहारती रहती हैं। एक बार ईजा ने मुझसे पूछ लिया- "च्यला यो सरकार हमर जंगोंक क्या कनेल्य" (बेटा ये सरकार हमारे जंगलों का क्या करती होगी)। इस प्रश्न का जवाब मेरे पास भी नहीं था। मैं बस चुप ही रहा, ईजा जंगलों की तरफ देखकर फिर सोच में पड़ गईं.