लॉकडाउन : संघर्ष का प्रयोगधर्मी अभिनेता मनोज वाजपेयी



लॉकडाउन : संघर्ष का प्रयोगधर्मी अभिनेता मनोज वाजपेयी


लॉकडाउन के दौरान मैं मनोज वाजपेयी की फिल्मों से गुजर रहा हूं। 'सत्या' के बाद 'गली गुलियां' देखी। मनोज वाजपेयी जिस भी किरदार में होते हैं उसे आत्मसात कर लेते हैं। पर्दे पर फिर आप मनोज वाजपेयी को नहीं देख रहे होते। आपकी आंखों के सामने बस वो किरदार होता है जिसे आप देख रहे होते हैं। आपके जेहन में बैठ जाता है-जरूर यह किरदार ऐसा ही था।



 

मैं मनोज वाजपेयी को भूल गया और 'गली गुलियां' का खुद्दूस मेरे दिमाग में बैठ जाता है। इसी तरह 'सत्या' के भीखू म्हात्रे की हंसी बड़ी देर तक मुझे विस्मित करती रहती है। मनोज वाजपेयी अपने हर किरदार में उसी तरह घुल जाते हैं जैसे पानी में चीनी या नमक। खोजते रहो- निकाल नहीं पाओगे चीनी औ दर नमक के दाने...उसी तरह मनोज वाजपेयी का स्वयं दूर छिटक जाता है और बस किरदार का स्वंय ही आपके जेहन और स्मृतियों में रहता है..।



 

मनोज वाजपेयी के संघर्ष को कौन नहीं जानता। दस साल तक दिल्ली में जी-जान से थिएटर करना। 16-16 घंटे नाटक की रिहर्सल। एक्ट वन थिएटर ग्रुप की स्थापना। वैरी जॉन के साथ जुटे रहना। वैरी जॉन के मना करने के बाद भी फिर से एनएसडी के लिए ट्राई करना। और दाखिला न मिलने के बाद भी निराश न होकर और ज्यादा मजबूती के साथ नाटक करना। बस नाटक करना...।



 

कैसा होता है जब एक व्यक्ति किसी एक चीज के लिए अपने छोटे से गांव से निकलकर दिल्ली की दहलीज पर कदम रखता है.. और वो ही चीज उसे हासिल नहीं होती.. लेकिन संघर्ष और मेहनत की बदौलत वो उससे बड़ी लकीर खींच देता है..। मनोज वाजपेयी को अगर एनएसडी में दाखिला मिल गया होता तो क्या बदल जाता पता नहीं? लेकिन नहीं मिलने से मनोज वाजपेयी ने एक काम जरूर किया, वो एनएसडी वाले से ज्यादा मेहनत और पढ़ाई...। नाटक और बस नाटक...।



 

मनोज वाजपेयी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि व्यक्ति ने तीस साल तक जो संघर्ष कर लिया तो कर लिया...उसके बाद वो आजीवन उसी संघर्ष की खाता है। लेकिन तीस साल तक के इस संघर्ष में उसे अपना सबकुछ झोंकना पड़ता है। इस लॉकडाउन मनोज वाजपेयी कि फिल्मों से गुजरते चलिए यकीन मानिए मनोज वाजपेयी खो जाएंगे और किरदार आपके साथ रहेंगे...। पिंजर, शूल, अलीगढ़, राजनीति, गैंग्स ऑफ वासेपुरा....जितनी मिले देख डालिए...।