पहाड़ की पशुशाला का आनन्द ही कुछ और है

||पहाड़ की पशुशाला का आनन्द ही कुछ और है||

 

ये है हमारा- छन और गुठ्यार। इस गुठ्यार में दिखाई देने वाली छोटी, 'रूपा' और बड़ी, 'शशि' है। गाय-भैंस का घर छन और उनका आँगन गुठ्यार कहलाता है। गाय- भैंस को जिनपर बांधा जाता है वो 'किल'। किल जमीन के अंदर घेंटा जाता है। हमारी एक भैंस थी 'प्यारी', वह इसी बात के लिए ख्यात थी कि कितना ही मजबूत ज्योड़ (रस्सी) हो और कितना ही गहरा किल घेंटा जाय, वह ज्योड़ तोड़ देती थी और किल उखाड़ देती थी। ईजा उस से परेशान रहती थीं। अमूमन किल घेंटना हर रोज का काम हो गया था। ईजा कहती थीं कि "आज ले किल निकाली है, यो भ्यो घुरुणलें".। च्यला फिर घेंट दे...

 

बुबू के समय हमारे गुठ्यार में भाबेरी ब्लद (बाबर वाले बैल) बंधे रहते थे। 'हंसी' और 'खैर' उनका नाम था। बुबू उनकी बड़ी सेवा करते थे। उनके गले में बड़ी- बड़ी 8 से 10 घानी (घंटियां) बधीं रहती थीं। उनकी घानी की आवाज भी बड़ी तेज थी जो दूर तक सुनाई देती थी। उनके बड़े- बड़े सींग थे। बीच-बीच में बुबू किसी को बुलाकर सींग कटवा देते थे। एक तो वो बहुत नुकीले हो जाते थे दूसरा मार करते हुए बैलों को चुभा देते थे। बुबू कहते थे कि "जिन्दार उई होंछ जाक गुठ्यार में भाबेरी ब्लद बांधी रहनी"। बैलों को कोई मार दे या उनके लिए घास की कमी हो जाए तो बुबू गुस्सा हो जाते थे। बैलों पर वह 'मक्खी नहीं बैठने देते थे'। भैंस ईजा और अम्मा के जिम्मे होते थे।भैंस की टहल- टक्कर ईजा ही करती थीं।

 

हमारा काम भैंस को पानी पिलाने 'गध्यर' ले जाने का होता था। 'शशि' से पहले जो भैंस थी उसका नाम 'खुशी' था। हमारे घर में सबसे सीधी भैंस वही थी। हम उसकी पीठ पर बैठ जाते थे। ईजा ने अगर देख लिया तो वहीं से चिल्लाते हुए पत्थर मारती थीं। हम भी घर की ओट होते ही फिर बैठ जाते थे। गध्यर में भैंस 'पाणी खाव' (पानी का तलाब) में बैठती तो हम चारों ओर से छपोड़ा- छपोड उसे नहला देते थे।

 

गध्यर में एक ही बड़ा खाव था। वहाँ गांव की और भैंसे भी आती थीं। ऐसे में कभी-कभी गर्मा- गर्मी भी हो जाती थी क्योंकि हमारी भैंस एक बार खाव बैठ जाती तो फिर एक घण्टे से पहले उठती नहीं थी। ऐसे में दूसरा व्यक्ति अपनी भैंस को नहलाने का इंतजार कर रहा होता था। हम लोग भैंस को खाव में छोड़कर 'ग्यांज' (केकड़े) पकड़ने, बारिश के दिनों में छोटे-छोटे खाव और घट बनाने, हिसालू, क़िलमोड खाने चले जाते थे। ऐसे में इंतज़ार कर रहे व्यक्ति का गुस्सा होना लाज़िमी था लेकिन हम अपनी गलती कम ही मानते थे। उनको ही कहते थे कि आप अभी क्यों लाए...

 

ईजा को भैंस के बिना गुठ्यार खाली लगता है। इसलिए उन्हें भैंस रखनी ही होती है। हाल फ़िलहाल तक तो ईजा ने चार भैंस रखी थीं। अब एक 'थोरी' और एक भैंस है। ईजा खाली बैठने भी छन ही चली जाती हैं। अगर किसी दिन भैंस ने घास कम खाया, पानी कम पिया या फिर दूध देने में परेशानी की तो ईजा कहतीं- 'हाक' (नज़र) लागी गे रे भैंसे कैं'। उसके बाद हाक मंत्रना होता था।

 

बुबू जी जागरी से लेकर छल पूजना और सभी तरह की मंत्र पूजा करते थे। मैं उनका उत्तराधिकारी था। इसलिए भैंस को हाक लगने पर ईजा कहती थीं कि "अरे च्यला आज भैंसेक हाक मंत्र दे" । मैं 'तामी' में मिर्च और राई के साथ मंत्र बोलते हुए हुए हाक मंतर देता था। ईजा राई और मिर्च को 'डाडु' (करछी) में कुछ जले हुए 'कोयैल' (कोयले) रखकर भैंस को सूंघा देती थीं और तीन बार उसके ऊपर से घुमाती भी थीं। उसके बाद उसे 'दोबाट' में रख देती थीं। इस तरह भैंस की हाक भगाई जाती थी।

 

ईजा आज भी कहती हैं कि ये मेरा 'बैंक बैलेंस' है। भैंस अगर ईजा की आवाज सुन ले तो जहाँ भी हो वहीं से रम्भाने लगती है। ईजा के लिए छन का मतलब ही भैंस है। हम जब भी ईजा को भैंस बेचने के लिए कहते हैं तो ईजा कहती हैं- बेचना आसान है, खरीदना मुश्किल... भैंस बेच दूँगी तो मैं यहाँ क्या करूँगी... हमारे लिए वह खरीदी और बेची जाने वाली भैंस है लेकिन ईजा की वह दुनिया.