उस पार न जाने क्या होगा



पाकिस्तान पर कुछ नोट्स-

(यह लेख टीवी प्रोड्यूसर और पत्रकार डॉक्टर कृष्ण कुमार रोहिल की विदेश यात्रा संस्मरणों पर केंद्रित किताब का हिस्सा है। कृपया पूरे संदर्भों को समझने के बाद ही कोई टिप्पणी करें।) 




 

||उस पार न जाने क्या होगा ||

 

पाकिस्तान जाना है, उत्साह बहुत था। डर उससे भी ज्यादा। मौका गुरु नानक देव के आशीर्वाद की बदौलत मिला। हालांकि, स्पष्ट कर दूं कि मैं ना धार्मिक व्यक्ति हूं और ना ही धर्म-कर्म से मेरा कोई वास्ता है, लेकिन जब तर्क बुद्धि की बात आती है तो सहज रूप से सिख और बौद्ध धर्म, दोनों आकर्षित करते हैं।

 

वर्ष 2019 में इमरान खान ने भारत को राजनीतिक पटखनी देने के लिए करतारपुर साहिब कॉरिडोर खोलने की घोषणा की और आनन-फानन में एक बड़ा प्रोजेक्ट बनाकर उस पर काम शुरू किया। इसके बाद भारत के पास कोई अवसर नहीं था कि वह अपना बॉर्डर खोलने से मना कर दे। जिस दिन यह खबरें अखबारों में छपी उसी दिन से मन हिलोरे ले रहा था कि पाकिस्तान चला जाए। यह ऐसा भाव है जो हर भारतीय के मन में शायद उसके पैदा होते ही गुंझल मारकर बैठ जाता है कि जीवन में जब भी मौका लगेगा तो पाकिस्तान जरूर चला जाएगा। कुछ मित्रों से इस बारे में बात की तो सबने हैरत के भाव से देखा और अगर उनके भाव का अनुवाद किया जा सकता तो वह यह होता कि तुम पागल हो गए हो, जो पाकिस्तान जा रहे हो। यदि पासपोर्ट पर एक बार पाकिस्तान की मुहर लग गई तो फिर भूल जाना कि जिंदगी में कभी अमेरिका या फिर यूरोप जा सकोगे। इस बात को सुनकर थोड़ी शंका हुई, पर फिर मन बदल गया कि ना तो अमेरिका, यूरोप में अपना कोई रिश्तेदार रहता और ना ही अब उम्र ऐसी है कि वहां जाकर कोई नौकरी तलाश करनी हो इसलिए बेहतर यही है कि अमेरिका, यूरोप जाने का सपना छोड़कर पाकिस्तान चला जाए।

 

इस बीच खबर मिली कि पाकिस्तान सरकार ने वीजा की बंदिश खत्म कर दी। बात आगे बढ़ती गई तो पाकिस्तान जाने के इच्छुक मित्रों की संख्या भी बढ़ती गई और फिर तय हुआ कि सामूहिक वीजा के लिए अप्लाई किया जाए, लेकिन आईबी में कार्यरत एक अधिकारी मित्र ने सुझाव दिया कि सामूहिक की बजाय अकेले-अकेले आवेदन करना ठीक रहेगा। कई बार सामूहिक में पूरा आवेदन निरस्त हो जाता है। क्यों हो जाता है, इसका कोई कारण आवेदक को पता नहीं चलता। आखिर में हम चार लोगों ने आवेदन किया। मेरे अलावा डॉ योगेश योगी, डॉ सुभाष अग्रवाल और हमारे कॉलेज की प्रबन्ध समिति के कोषाध्यक्ष श्री अतुल हरित। चारों की तैयारी थी, लेकिन जब अनुमति आई तो डॉक्टर योगेश योगी और डॉक्टर सुभाष अग्रवाल का नाम पाकिस्तान जाने वालों की सूची में नहीं था। इस अनुमति से पहले कई रोचक बातें हुई जो शायद अन्य किसी देश के मामले में नहीं होती। यहां तक कि चीन के मामले में भी नहीं होती, यह बातें अपने यात्रा अनुभवों के आधार पर कह रहा हूं। लोकल इंटेलिजेंस के अलावा भारत सरकार की एजेंसियों द्वारा भी जांच पड़ताल की गई कि पाकिस्तान जाने का मकसद क्या है, वहां कोई रिश्तेदार तो नहीं रहता, कोई ऐसा काम-धंधा तो नहीं करते जो पाकिस्तान से जुड़ा हो, इससे पहले कभी पाकिस्तान गए हैं क्या या कभी किसी को पाकिस्तान में फोन कॉल की है क्या, पाकिस्तान में कोई दोस्त रहता है क्या, इस तरह के बीसियों सवाल हर बार दोहराए गए और एक खास तरह के उत्तर नोट किए गए। आखिरकार वह दिन भी आ गया जब पाकिस्तान पहुंचना था। एक दिन पहले मैं और अतुल हरित अमृतसर पहुंच गए। शाम को स्वर्ण मंदिर गए तो देखा कि हम जैसे कई लोग वहां मौजूद थे जिन्हें अगली सुबह पाकिस्तान जाना था। करतारपुर साहिब कॉरिडोर के मामले में सरकार ने यह बंदिश लगाई थी कि सुबह जाकर शाम को लौटना था। दिसंबर का महीना था, ठंड काफी थी। रात भर इस मानसिक हलचल में नींद नहीं आई कि सुबह पाकिस्तान देखना है। कई बार लगता है कि पाकिस्तान हम सब लोगों के माथे पर मौजूद उस गांठ की तरह है जिसे हम चाहते तो हैं कि वह हट जाए, लेकिन खतरा बहुत है कि कहीं वह कैंसर की गांठ ना हो। ये गांठ न रखते बनती और न हटाते बनती तो माथे पर गांठ लिए घूमते रहते हैं। अमृतसर से बहुत जल्दी करतारपुर साहब के लिए निकल गए। करीब एक घंटे में वहां पहुंचे। एक सोया हुआ छोटा-सा कस्बा करतारपुर साहिब अचानक पूरी दुनिया के लिए चर्चा के केंद्र में आ गया। कस्बा पार करके जैसे ही बॉर्डर की तरफ बढ़े तो आठ लेन की चमचमाती सड़क, थोड़ा से धुंध में लिपटे हुए भारत के खेत और कुछ दूर पर तारबाड़ के पार पाकिस्तान की धरती। भारत की तरफ इमीग्रेशन सेंटर पर काम चल रहा था, लेकिन कामचलाऊ व्यवस्था के लिए सारे काउंटर शुरू हो गए थे। लगभग वैसी ही व्यवस्था यहां थी जैसे कि किसी अंतरराष्ट्रीय इमिग्रेशन के वक्त होती है। बस इतना अंतर था कि इमीग्रेशन के उस पार कोई एयरपोर्ट नहीं था और ना ही उड़ने के लिए कोई हवाई जहाज मौजूद था।

 

इमीग्रेशन पर भारत सरकार द्वारा दी गई अनुमति की जांच पड़ताल हुई। वहां जाने की वजह को अच्छी तरह परखा गया। कस्टम के अधिकारियों ने उन सारे सामान को देखा, जांचा जो हम पाकिस्तान लेकर जाने वाले थे। तब लग रहा था कि संभवतः मोबाइल की अनुमति नहीं मिलेगी, लेकिन उस वक्त सुखद अनुभूति हुई जब मोबाइल जमा नहीं कराया गया। एक ताकीद जरूर की गई कि पाकिस्तान से किसी भी तरह का खाने-पीने का सामान, चाहे मिठाई हो या फिर फल, नहीं लेकर आना है। खैर, कुछ लेकर लाना भी नहीं था। हम तो केवल उस धरती को जानना, देखना चाह रहे थे, जो कभी हमारे पूर्वजों के अखंड भारत का हिस्सा थी और जिसको याद करके शायद अपने अवचेतन में आज भी लोग तड़पते हैं या उसे मिस करते हैं।

इमीग्रेशन की औपचारिकताओं के बाद ई-कार्ट (ई-रिक्शा) में बैठाकर सब लोगों को उस जगह छोड़ा गया जो भारत और पाकिस्तान के बीच वो धरती है, जो तकनीकी तौर पर किसी देश का हिस्सा नहीं है। वह एक तरह का बफर जोन है जो दोनों के बीच बनाती है और नो मैंस लैंड की तरह जानी जाती है। वहां उतरे और अचानक कुछ कदम चलने के बाद एक बहुत भारी भरकम आवाज सुनाई दी, "आपका पाकिस्तान में खैरमकदम है।" इस आवाज को सुनकर डर लगा और अचानक मन किया कि पांव पीछे हटा लें। उस अफसर ने मजाक में कहा कि अब आप पाकिस्तान में है, पीछे नहीं लौट सकते। सच में डर लगा, कुछ देर के लिए पैर थम गए, जैसे उस धरती को महसूस करना चाहते हैं कि यह धरती भारत से अलग है और क्या ये दुश्मन की धरती है ! वैसे ही खेत, वैसी सड़क, वैसे ही शक्ल-सूरत, वैसे ही लोग, वैसी ही जबान, वैसा ही बोलने का ढंग, वैसा ही बात करने का तरीका, सब कुछ भारत जैसा ही। कुछ भी तो अलग नहीं। बस एक अंतर जरूर था- पीछे मुड़कर देखा तो तिरंगा लहरा रहा था और आगे पाकिस्तान का हरा झंडा, पीछे बापू थे और सामने जिन्ना। मोहम्मद अली जिन्ना के और उदास लग रहे थे।

 

इस बीच एक बात ने ध्यान खींचा। नो मैंस लैंड के पास भारत की तरफ से जो ऑफिसर ड्यूटी पर थे, उनमें कई लड़कियां थी। पाकिस्तान ने भी अपनी तरफ जिन ऑफिसर्स को ड्यूटी पर लगाया हुआ था उनमें भी लड़कियां थी, लेकिन दोनों में साफ अंतर दिखता था। एक तरफ पुरुषों जैसी वर्दी, वैसे ही खुलेपन के साथ और दूसरी तरफ स्कार्फ पहने हुए पाकिस्तान रेंजर्स की अधिकारी लड़कियां। महिलाओं को मिली आज़ादी का अंतर था। इस तरफ भी ई-कार्ट मौजूद थी। उसने पाकिस्तान के इमीग्रेशन सेंटर पर छोड़ दिया। शायद मन का कोई भाव रहा होगा कि पाकिस्तान का इमीग्रेशन सेंटर थोड़ा उदास लगा। लोग ज्यादा संख्या में नहीं थे, बुनियादी ढांचा भी भारत की तुलना में कमजोर था, पर सलीका हमसे ज्यादा दिखाई दिया। बातचीत में तुर्शी नहीं थी, कड़वाहट मन में रही हो तो अलग बात है, व्यवहार में नहीं दिखी। वहां जांच पड़ताल के काम में ज्यादा वक्त नहीं लगा। कस्टम के अधिकारी ने मेरा पासपोर्ट देखा और फिर कहा आप सिख तो नहीं है, हिंदू हैं, फिर करतारपुर साहब कैसे आए हैं ? मैंने अपने ढंग से उन्हें बताने की कोशिश की कि गुरु नानक देव महाराज का रिश्ता जितना सिखों से है, उतना ही हिंदुओं से भी है। उन्होंने और कई सवाल पूछे, उनके सवालों की संख्या बढ़ रही थी और मेरा डर बढ़ रहा था कि कहीं इस जगह से वापस तो नहीं लौटा देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने आगे जाने दिया। एक और बात हुई, मेरे पासपोर्ट पर जन्म स्थान मुजफ्फरनगर लिखा हुआ है। मुजफ्फरनगर पढ़कर वह अधिकारी जिसकी नेम प्लेट पर ताहिर बिलाल लिखा हुआ था, कुछ पल के लिए ठहर गया और फिर पूछा आप मुजफ्फरनगर से हैं। मैंने कहा, नहीं, पर मेरा जन्म वहां हुआ है। मैंने सवाल किया आपका खानदानी कस्बा मुजफ्फरनगर है क्या ? वह कुछ देर रुका और उसने कहा, नहीं ऐसा नहीं है। ऐसा कुछ था जरूर, पर उसने शेयर नहीं किया। मैंने बातचीत को हल्का करने के लिहाज से कहा कि भले ही कोई सीधा रिश्ता आपका ना हो, लेकिन आपके पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली तो मुजफ्फरनगर में ही जन्मे थे। मेरी इस बात को सुनकर वह भी थोड़ा सहज हुए और बोले कि उनकी बीवी नैनीताल की थी।

 

इमिग्रेशन से बाहर आये तो पाकिस्तान की तरफ से बहुत ही खूबसूरत बस की व्यवस्था की गई थी। वहां से करीब 4 किलोमीटर दूर गुरुद्वारा साहिब जाना था। उत्सुकता इतनी कि बस में सीट पर बैठने का मन नहीं किया। खिड़की के किनारे खड़े होकर पाकिस्तान की धरती को देखने लगा। रास्ते में एक छोटा-सा गांव भी आया। भले ही पाकिस्तान में थे, लेकिन फिर भी जैसे वहां से पूरी तरह कटे हुए थे। पूरे रास्ते में तारबंदी की गई थी। पूरे कोरिडोर को इस तरह से तैयार किया गया कि आप कोरीडोर तक ही सीमित रहते हैं। बाहर की दुनिया से सीधा रिश्ता नहीं बन पाता, पर रास्ते में उस माइल स्टोन को देख कर खुशी हुई जिस पर लिखा हुआ था, लाहौर 112 किलोमीटर। इससे ज्यादा खुशी वाघा बॉर्डर की तरफ जाते हुए होती है जहां लिखा है, लाहौर 22 किलोमीटर। कितना पास है सब कुछ। और फिर अगले ही पल लगता है कुछ भी तो पास नहीं है। एक तरफ से दूसरी तरफ आने के लिए जैसे सदियों लग जाती हैं।

 

लगभग 10 बजने वाले थे, लेकिन ठंड काफी थी। तापमान 4-5 डिग्री से ज्यादा नहीं था। चूंकि धर्म स्थल पर आए थे इसलिए जूते-जुराब बाहर ही उतार दिए गए और उस ठंड में कई घंटे नंगे पांव घूमते हुए पूरे गुरुद्वारे को देखा, उस धरती को देखा जहां गुरु नानक देव महाराज ने अपने जीवन के 17 साल बिताए थे। गुरुद्वारे के बराबर में ही एक बड़ा इलाका है जहां गुरु महाराज ने अपने हाथों से खेती की थी।

 

पाकिस्तान सरकार के आंकड़ों पर भरोसा करें तो यह बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है। लगभग 100 एकड़ भूमि में इस वक्त निर्माण संबंधी काम का पहला चरण पूरा हो गया है। इस प्रोजेक्ट को लगभग 800 एकड़ तक विस्तार दिया जाना है। वहां की व्यवस्थाएं देखकर ऐसा लग रहा है कि भविष्य के लिए पाकिस्तान ने एक साथ लाखों श्रद्धालुओं को अपने यहां बुलाने का इंतजाम किया है। पूरी बिल्डिंग को सफेद पत्थर से बनाया गया है। बिल्डिंग के ठीक बीच में बने गुरुद्वारे की तरफ जा रहे थे तो एक प्रवेश द्वार पर मजार बनी हुई है, जिसे गुरु नानक देव महाराज के साथ जोड़ा जाता है। अंदर गुरुद्वारे में बहुत ज्यादा लोग नहीं थे। यूं तो पाकिस्तान सरकार ने हर रोज पांच हजार लोगों के आने की अनुमति दी हुई है, लेकिन बताया गया कि यहां एक भी दिन ऐसा नहीं हुआ जब भारत की तरफ से ढाई हजार लोग भी पहुंचे हों।लोगों के मन में कहीं ना कहीं एक आशंका का भाव है। अभी सब कुछ उतना सहज नहीं है कि पाकिस्तान जाना एक सामान्य गतिविधि बन जाए और सिख श्रद्धालु अथवा वे लोग जिनके मन में सिख धर्म के प्रति आस्था है, वे निर्बाध रूप से यहां आ सकें। खास बात यह है कि यहां गुरु नानक देव महाराज सिख गुरु भी हैं और मुसलमानों के लिए पीर भी हैं। कितने मुसलमान यहां आते होंगे, इसका अनुमान लगाना तो मुश्किल है, लेकिन पाकिस्तानी मुसलमानों के लिए भी यहां व्यवस्थाएं की गई हैं। उनकी एंट्री का अलग रास्ता बनाया गया है। पर जिस वक्त हम लोग गुरुद्वारे में मौजूद थे, उस वक्त गिने-चुने ही पाकिस्तानी वहां दिखे और उनमें भी शायद ही कोई ऐसा हो जो हिंदुस्तानियों के साथ बातचीत करने को लेकर बहुत ज्यादा उत्सुक दिख रहा हो।

 

गुरुद्वारे के भीतर एक रोचक बात थी कि वहां पाकिस्तानी करेंसी और डॉलर के अलावा भारतीय करेंसी को भी दान के रूप में स्वीकार किया जा रहा था। मैंने पूछा वहां कि क्या भारतीय करेंसी में दान किया जा सकता है तो उन्होंने सहमति जताई। दिन ढलने की तरफ था, भूख भी लग गई थी। गुरुद्वारे में लंगर की व्यवस्था भी है, लेकिन इसकी तुलना स्वर्ण मंदिर के लंगर से नहीं कर सकते। फिर भी, जो कुछ था, अच्छा था। वहां की रोटियां आकार में बहुत बड़ी थी और एक ही तरफ से सेंकी गई थी। उस दिन मैंने और अतुल हरित ने पाकिस्तान की रोटियां खायी। फिर लगा कि नहीं, पाकिस्तान की नहीं, यह तो गुरु नानक देव महाराज की रोटियां थीं। मन को तसल्ली हुई, जैसे किसी अपराधबोध से मुक्ति मिली हो या कोई देश लौटने पर पूछेगा कि क्या तुम पाकिस्तान का नमक खाकर आए हो ? मन को एक जवाब हासिल हो गया, नहीं हमने पाकिस्तान का नमक नहीं खाया, हमने तो लंगर में गुरु प्रसाद ग्रहण किया है।

 

जब गुरुद्वारे से बाहर की तरफ आए तो देखा कि पाकिस्तान के किसी कॉलेज से लड़कियों का एक दल भ्रमण के लिए आया था। मन किया कि इनसे बात की जाए या इनके दल के साथ फोटो खिंचवाई जाए, लेकिन दल के साथ आए शिक्षकों ने मना कर दिया।

 

इसके बाद हम लोग गुरुद्वारा साहब के पीछे बने छोटे से बाजार में चले गए। पूरे बाजार में 20-25 दुकानें मौजूद थी। बताया गया कि बाजार अभी विकसित हो रहा है। धीरे-धीरे करके दुकानों की संख्या बढ़ेगी और इसे व्यवस्थित रूप दिया जाएगा। अलग-अलग तरह की दुकानें थी, लेकिन वहां के भाव थोड़ा ऊंचे थे। कोने की किसी दुकान पर 50 रुपये की चाय पीना थोड़ा परेशान करता है, लेकिन जब इस पाकिस्तानी 50 रुपये को भारतीय रुपए में कन्वर्ट करते हैं तो यह 23 रुपये में बदल जाता है। अब विदेश में 23 रुपए की चाय तो कोई बड़ी बात नहीं है। मिठाई की दुकान भी सजी थी जहां 1400 रुपए किलो बर्फी बिक रही थी। अब फिर वही बात, इसे भारतीय रुपए में बदलिए तो 600 रुपए किलो का भाव बैठता है।

 

भारत की तुलना में पाकिस्तान महंगाई ज्यादा है। संभव है कि किसी सामान्य बाजार में इतने ऊंचे भाव ना हो जितने यहां पर हैं। बाहरी तौर पर दुकानदार मना कर रहे थे कि वे भारतीय करेंसी नहीं लेते, लेकिन जैसे ही किसी सामान की खरीदारी का मामला तय हो जाता था तो धीरे से कहते कि भारतीय करेंसी भी ले लेंगे। लकड़ी का सामान काफी सस्ते दामों पर में था, लेकिन यह नहीं पता था कि कितनी मात्रा में इस सामान को यहां से भारत लेकर जा सकते हैं। यह डर भी था कि कहीं सामान को कस्टम वाले ना हड़प लें। यह आशंका हमेशा ही रहती है। कस्टम वालों का कोई भरोसा नहीं, आप कुछ भी सामान लाए हों, लेकिन उन्हें लगा कि सामान को रोकना है या सामान को जब्त करना है तो फिर कोई ना कोई ऐसा नियम कायदा निकल आएगा कि सामान आपके हाथ से चला जाएगा।

 

बाजार में एक और चीज देखी कि जो स्मृति चिन्ह यहां रखे गए थे, उन सब पर पाकिस्तान का राष्ट्रीय चिन्ह मौजूद था। अब भला कौन हिंदुस्तानी ऐसा होगा जो पाकिस्तान के राष्ट्रीय चिन्ह वाला स्मृति चिन्ह यहां से खरीदकर भारत ले जाना चाहेगा। किसी को देना भी चाहें तो कोई क्यों ऐसे राष्ट्रीय चिन्ह वाले सामान को लेगा, जिसके प्रति बचपन से ही हमारे मन में शंका का भाव मौजूद है।

 

सूरज ढलने की तरफ बढ़ रहा था और हमारा वापस लौटने का समय होने लगा था। जिस बस से आए थे उसी बस में फिर सवार हो गए। वापसी की यात्रा इस रूप में सुखद रही कि पाकिस्तान की दो युवा कस्टम अधिकारी भी उस बस में मौजूद थीं। उनसे बातचीत हुई तो उन्हें हिंदुस्तान के बारे में बहुत सारी जानकारियां थी। संभव है कि यहां नियुक्ति से पहले उनकी इस तरह की ट्रेनिंग की गई हो कि हिंदुस्तानियों से किन मसलों पर, क्या और किस तरह बात करनी है और किन मसलों से बचना है। बात शुरू करने के लिए उनमें से एक ने पूछा कि सुना है, दिल्ली में दंगे हुए हैं ? यह हमारे लिए आश्चर्य की बात थी तो उन्होंने बताया कि यहां के चैनलों में खबरें दिखाई जा रही हैं कि दिल्ली में नागरिकता कानून को लेकर दंगे हो रहे हैं। संयोग की बात है कि पाकिस्तान जाने के तीन-चार दिन पहले ही एक खबर देखी थी, जिसमें कराची में वकीलों के एक गिरोह ने डॉक्टरों पर हमला किया था। बदले में उन्हें जब ये खबर सुनाई तो वे भी उतने आश्चर्य में थीं, जितने आश्चर्य में हम दिल्ली में दंगे होने की बात पर। कुल मिलाकर दोनों तरफ का मीडिया दंगों के बीज बोता है और आखिर में इन बीजों पर जो कुछ पैदा होता है, वह तीखे कांटों से अलग कुछ नहीं होता। उन दोनों से पता चला कि पाकिस्तान में भारत के सभी प्रमुख न्यूज़ चैनल दिखाए जाते हैं। जबकि भारत मे पीटीवी देखना कमोबेश राष्ट्रद्रोह जैसा है।

 

पूरी बातचीत के दौरान वे दोनों अधिकारी भारत की कई तरह की खूबियों की चर्चा करती रही, बीच-बीच में अपने देश की खूबियों के बारे में भी बताती रही। जितना और जहां तक संभव था, हम भी पाकिस्तान के बारे में अपनी राय को साझा करते रहे। उन्होंने जोर दिया कि आप हिंदुस्तान में यहां के अच्छे अनुभव के बारे में जरूर बताइएगा। हिंदुस्तान आकर पाकिस्तान यात्रा के कितने अच्छे अनुभव बताए जा सकते हैं और कितनों को छिपाकर रखना होता है, यह एक बड़ा प्रश्न हमेशा ही रहा है और आगे भी रहेगा।

 

कुछ ही देर में हमारी बस पाकिस्तान के इमीग्रेशन सेंटर वापस आ गई। लौटने की वही प्रक्रिया दोहराई गई। जाते वक्त कुछ पाकिस्तानी करेंसी ली थी, एक नोट छोड़कर बाकी करेंसी को डॉलर में बदलवा लिया। नो मैंस लैंड से होते हुए दोबारा हिंदुस्तान की धरती पर थे और अब पाकिस्तान रिटर्न थे। घर वापसी का अद्भुत सुख और संतोष महसूस हो रहा था, हालांकि जीभ पर अब भी सुबह की पोलियो की खुराक का कसैलापन बना हुआ था। अब यह बात आश्चर्यजनक लग सकती है कि क्या इस उम्र में भी पोलियो की खुराक पीनी पड़ेगी तो सच्चाई यही है कि अगर आप पाकिस्तान जाते हैं तो फिर पोलियो की खुराक भी पीनी पड़ेगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी उम्र क्या है क्योंकि पाकिस्तान अभी पोलियोमुक्त नहीं हुआ है। चूंकि भारत कई साल पहले पोलियो से पार पा चुका है इसलिए डर रहता है कि पाकिस्तान की यात्रा में कहीं पोलियो का विषाणु भारत ना आ जाए।

 

लौटते वक्त एक बार फिर मुड़ कर पीछे की तरफ देखा तो पीछे जिन्ना थे और सामने बापू। बापू के चेहरे पर कोई ऐसा भाव नहीं लगा जिसमें कहीं नाखुशी दिख रही हो। बापू ने खुद कहा था कि वह बिना पासपोर्ट के एक दिन पाकिस्तान जाएंगे। वह तो नहीं गए, हम लोग जाकर लौट आए। बापू के फोटो की तरफ देखकर लगा कि जैसे वे हमेशा की तरह ही मुस्कुरा रहे हैं।

वापसी के दौरान इस बात से थोड़ी चिंता हुई कि इस यात्रा का इलेक्ट्रॉनिक विवरण हमेशा के लिए दर्ज हो गया है, भले ही पासपोर्ट पर पाकिस्तान की मुहर ना लगी हो। मुझे अगले ही महीने वियतनाम जाना था तो डर बना रहा कि कहीं वियतनाम का वीजा मिलने के वक्त पाकिस्तान वाली यात्रा परेशानी खड़ी न करें। वैसी कोई परेशानी तो खड़ी नहीं हुई, लेकिन घर लौटने पर अगले ही दिन खुफिया एजेंसियों के फोन आने लगे कि बताइए पाकिस्तान में क्या-क्या किया, वहां क्या गतिविधियां रहीं, वहां किसी से मेलजोल तो नहीं हुआ ? जो सच था, वो ब्यौरा बताकर राहत पायी।

 

यदि इस लेख में यह लिख दूं कि यह यात्रा ऐसी थी, जैसे बरसों पहले कोई मन्नत मांगी हो और वह मन्नत हमेशा सिर पर सवार हो तो समझिए यह यात्रा खुद को मुक्त करने जैसी थी। या फिर सिर पर सवार उस बोझ की तरह जो अनेक बरसों से हम जैसे हजारों, लाखों लोगों की आत्मा पर पड़ा हुआ। फिर मौका लगा तो पाकिस्तान जरूर जाऊंगा। एक बार लाहौर और पेशावर भी जाना है। पाकिस्तान हमारी दुखती रग है, हमेशा दुखती रग ही रहेगा, लेकिन फिर भी मेरा अनुभव यह कहता है कि अवसर मिले तो पाकिस्तान जरूर जाइएगा। वहां जाकर इस बात पर आपका यकीन पुख्ता होगा कि अच्छे लोग दोनों तरफ हैं, चाहे वह हिंदुस्तान हो और चाहे पाकिस्तान। और हां बिगड़े बदमाश लोगों की भी कोई कमी नहीं है। वह इस तरफ भी हैं और उस तरफ भी।