27 सालों से बंजर थे खेत, लाॅकडाउन में हुए सरसब्ज

||27 सालों से बंजर थे खेत, लाॅकडाउन में हुए सरसब्ज||



यमुना घाटी का नौगांव बाजार ऐसी जगह है जहां से आप हिमांचल और चारो धामों के लिए सहजता से आवागमन कर सकते हैं। सौभाग्य से मेरा गांव देवलसारी भी नौगांव नगर पंचायत के अन्र्तगत आता है। यहां लुद्रेश्वर देवता का मंदिर भी है। स्थानीय स्तर पर यह देवस्थान धार्मिक पर्यटन के रूप में विख्यात है। खैर! इस बात को फिर कभी। अभी मैं निकल पड़ा हूं सरनौल गांव की तरफ। जहां का मनमोहक दृश्य यूं ही लोगो को आकृषित करता है।


सरनौल गाँव नौगांव से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर है और नौगांव ब्लॉक का सबसे अन्तिम गांव है। यात्रा मोटर साईकिल की थी, तो सरनौल गांव पंहुचने में कोई दो घंटे लग रहे थे। मगर हमे तो रात्री विश्राम गंगटाड़ी गांव में ही करना था। इस तरह से नौगांव से बडकोट, डखायटगाँव, राजगढी होते हुए तय कार्यक्रम के अनुसार रात्री के लिए गगटाडी गांव ही पंहुच गये। अगली सुबह नाश्ता करके हम लोग चपटाडी, बचाणगाँव होते हुए सरनौल गाँव की तरफ यात्रा आरम्भ कर दी। इस अन्तराल में हमने अपनी गाड़ी को बार-बार रोका और ढेरसारी हिंसल भी खाई। खानी भी क्यों नही, वर्षभर में यह जंगली फल एक बार मिलता है। वह भी विशेष स्थानो पर।


इस दौरान रास्ते में एक स्थानीय युवा द्वारा बनाये गये मच्छली पालन केन्द्र मे भी जाने का अवसर मिला। यहां पर मछली पालने के लिए 10-12 बडे-बड़े टैंक बने थे, जो दृश्य पहाड़ में चैकाने वाला हो सकता है, पर प्रेरणादायक इस मायने में कि स्वरोजगार के लिए पहाड़ में भी ऐसे युवाओं के लिए माकूल स्थान है। थोड़ा आगे जाने पर 15 से 20 नौजवान झुन्ड मे दिखाई दिये। वे अपनी अपनी मोटरसाईकिलो पर सवार होकर शायद यहाँ मछली पालन केन्द्र देखने आये हुए थे। जिज्ञासाबस मैनै इन युवाओ से बातचीत की। पता चला कि ये नौजवान पास में बह रही बडियार गाड (छोटी नदी) मे मछली मारने के उद्देश्य से आये है। खैर! हम लोग अपने गन्तव्य की ओर आगे बढे। 


रास्ते में कई स्थानो पर हमने छोटे बच्चों को गाय, भैस व बैल को चुगाते देखा। चुगाना मतलब खुले मैदान में पशु चुंग रहे हैं और ये बच्चे लेश मात्र इनको देख रहे हैं, कि पशु किसी दूसरे के खेत में अजाड़ न कर दे। इन बच्चों से भी बातचीत हुई। पता चला कि ये बच्चे भी आजकल लाॅकडाउन के कारण अपने गांव में काफी खुशी का इजहार कर रहे हैं।


इस तरह हमारी यात्रा आगे बढी। रास्तेभर में हम लोगो ने लेंगडा की सब्जी एकत्रित की। जो इस क्षेत्र में बहुतायात में पैदा होती है। बता दें कि लेंगड़ा किसी के खेत में नही बल्कि यह जंगली सब्जी है, जो बहुत ही पौष्टिक होती है। यात्राकाल में लगभग 30 किमी का सफर कच्ची सड़क से ही गुजरा। सड़क की हालत बहुत ही खराब होने के कारण हमें भी अपनी गाड़ी और खुद को बचाना पड़ा। इसलिए सफर बहुत ही आराम से तय हुआ। रास्ते भर सैकड़ो युवाओं से बातचीत करते हुए सरनौल गाँव पहुंच गये।


गाँव मे आजकल गेहूँ की कटाई और कुठाई जोरो पर चल रही है। घर-पर लोगो से मिलना मुश्किल है। गांव के सभी लोग अपने-अपने खेतो मे गेंहू की कटाई पर लगे है। और जिन परिवारों ने गेहूँ काट दिये, वे गेहूं की कुठाई कर रहे है। गेंहू की कुठाई का तरीका यहां काबिलेगौर है। सरनौल में एक नयी बात देखने को मिली। गेंहू के दाने अलग करने के लिए बैलो के साथ-साथ घोडे व खच्चरो को भी इस्तेमाल कर रहे है। अब यह होता कैसे है, जो दिलचस्प है। गेहूँ की हर बाली सुखाई होती है। इन्ही बाली को घर के आंगन में फैलाया जाता है या यूं कहे कि बिछाया जाता है। फिर बिछाये हुए गेंहू के ऊपर गाय व भैंस को छोड़कर अन्य पशुओं को गोलचक्कर में धुमाया जाता है। जिसे स्थानीय भाषा में ‘दांयी’ कहते है। अर्थात गेंहू को निकालाना। 
गांव में आजकल का दृष्य अभिभूत कर देता है। हर किसी के घरों की छतो पर गेहूं की गठरियां सुखाने के लिए रखी है।


इतना सुन्दर दृश्य सरनौल गांव का। यहां लोगो की घर की छत पर जो स्लेट (पठाल) लगी है, वह ऐसी लग रही है कि मानो लोहे की चादरे बिछी हों। मौसम एकदम सुहाना और ठन्डक देने वाला। सफर में पसीने जैसे कोई हालात ही नहीं बनती। हम लोग बडे भाई मनोज सेमवाल के घर बैठे व जलपान किया। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। पता चला कि आचार्य मनोज सेमवाल पूजा-पाठ के बहुत बडे विद्वान है। जो कई सालो से देहरादून व विभिन्न बडे शहरो मे पूजा-पाठ का कार्य करते आये है। मै भी काफी सालो से इनको जानता हूँ। श्री सेमवाल के अनुसार आजकल कोरोना महामारी की वजह से इनका यह अनुष्ठानिक कार्य बन्द हो रखा है। यही वजह है कि मनोज सेमवाल अपने गांव पंहुच चुके है। पर घर-गांव मे इनके खेत-खलियान 27 सालो से बंजर पडे थे। सो श्री सेमवाल ने लाॅकडाउन का फायदा उठाते हुए इन खेतो को सरसब्ज करने की पूरी हिम्मत दिखाई, और खेतो में फ्रांसबीन, राजमा आदि की बुआई कर डाली। गांव में यह देखते अन्य युवाओं ने भी इनके विचार को अपनाया और इसी क्रम मे किसी ने आलू, किसी ने सेब का बगीचा तैयार कर दिया।


यह यात्रा मेरे लिए बहुत ही ऊर्जा देने वाली रही। इस मायने में कि जो युवा वर्षो बाद अपने गांव-घर पंहुचे और सीधे खेती किसानी से जुड़े, वह निश्चित ही प्रेरणादायक पल है। मैने भी श्री सेमवाल और गांव के अन्य युवाओं से वायदा किया कि जो भी फसल पैदा होगी उसको रूद्रा एग्रो स्वायत सहकारिता कम्पनी के माध्यम से बाजार उपलब्ध कराऊंगा। बाजार से अच्छे रेट भी यथा स्थान पर ही उपलब्ध कराऊंगा।