मित्र दिनेश! तुम कहाँ चले गये बिन बताये


||मित्र दिनेश! तुम कहाँ चले गये बिन बताये||


मेरा मित्र दिनेश कण्डवाल अब नहीं रहा, मगर उसकी यादें शेष जीवन में सदैव जीवित रहेंगी। कुछ दिन पहले ही जल्दी मिलने का वायदा कर गया था। हम दोनों का जन्म वर्ष एक था। हमारा विवाह भी एक ही मुहूर्त पंचमी के दिन हुआ था। शायद हमारे ज्येष्ट पुत्र अजय और प्रांजल भी लगभग एक ही समय जन्में थे।


हम दोनों ने कड़की में काफी समय एक साथ गुजारा। उन दिनों हम दोनों ही वामपंथी पत्रकार हुआ करते थे। मैं और लोकेन्द्र राज शर्मा के सागिर्द थे तो दिनेश करनैल सिंह की सागिर्दी कर चुका था। मतलब यह कि वह हमसे भी घोर वामपंथी होता था। उन दिनों नवीन नौटियाल भी हमारी कंगला मंडली का सदस्य होता था। उसकी किस्मत उसे ओएनजीसी में ले गयी जहां एक Phenologist के तौर पर वह तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता गया मगर वह जैसा तब था बिल्कुल वैसा ही मरते दम तक रहा।


वह राज शर्मा के लैक्टोजन दूध पावडर के डब्बे को कभी नहीं भूला। ऐसी ही यादें उसकी गुरुचरण के साथ भी थी। हरदिल अजीज। दोस्तों का दोस्त। दोस्ती उसका जुननू थी। ओएनजी में काफी ऊंचे ओहदे पर रहते हुये खूब पैसे भी कमाये मगर उसकी असली कमाई उसके मित्रों की बहुत लम्बी सूची थी। आजकल ज्यादातर लोग अपने मतलब के लिये दोस्ती करते हैं। खास कर पत्रकारिता इस बीमारी से ज्यादा संक्रमित है। लेकिन दिनेश अलग किस्म का मित्र था। त्रिपुरा में वह एक्सप्लोरेशन में था। बीहड़ों और दुर्गम इलाकों में तैनाती के कारण उनका 15 दिन का महीना होता था इसलिये वह 15 दिनों के लिये अक्सर देहरादून आ जाता था।


यहां आकर कहता था कि यार मुझे तुम जैसे कड़की के दोस्तों पर पैसा खर्च करने में बहुत आनन्द आता है। इसलिये दिनेश के आने का मतलब दावतों का दौर शुरू होना होता था। शायद अतुल शर्मा भी अपने इस दोस्त को कभी नहीं भुला पायेगा। उसकी दोस्ती का दायरा भी बहुत ही व्यापक था। मित्रों की सूची में पशु-पक्षी, कुत्ते बिल्ली से लेकर धरती के खूबसूरत कोने-कोने थे। रिटायरमेंट के बाद वह आजाद था। उसने मुझसे भी घुमक्कड़ी में साथ देने को कहा था। लेकिन मेरी स्थिति उस आजाद पंछी की जैसी नहीं थी। वह एक बेहतरीन दोस्त, बेहतरीन इंसान और बेहतरीन फोटोग्राफर होने के साथ ही एक बेहतरीन पत्रकार और बेहतरीन लेखक भी था। तेल एवं प्राकृतिक गैस की खोज में फेनोलॉजिस्ट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। त्रिपुरा में ओएनजीसी की सेवा के दौरान जनजातियों में उसकी दोस्तों की लिस्ट और लम्बी हो गयी। उसने कई ट्रैवलॉग लिखे। उसकी रचनाएं पहले ही धर्मयुग और कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं में छपतीं थीं। उसका पकृति चित्रण उस दौरान ‘‘स्वागत’’ जैसी पत्रिकाओं में छपने लगा था।


उसने मुझे भी स्वागत और सिगनेचर जैसी पत्रिकाओं में लिखने के लिये प्रेरित किया। ये पत्रिकाएं कुछ अधिक भुगतान करती थीं। दिनेश ने त्रिपुरा में रहते हुये ’’त्रिपुरा की आदिवासी जनजातीय कहानियां’’ नाम से कहानी संग्रह की रचना कर वहां के लोक साहित्य का डाक्यूमेंटेशन किया। मैं इस किताब का बार-बार पुस्तक लोकार्पणों में उल्लेख करता रहा हूॅ। रिटायमेंट के बाद घुमक्कड़ी के साथ ही कण्डवाल ने अपनी पत्रकारिता की पुरानी लाइन पकड़ी और जब उसकी पत्रिका ‘‘देहरादून डिस्कवर’’ लांच हुयी तो उसका लोकापर्ण मेरे जैसे नाचीज से कराया गया। उसके लिये मित्रों से बड़ा कोई वीआइपी नहीं होता था। उस दिन उसने गुरुचरण, उमांकात लखेड़ा और अतुल शर्मा जैसे कई पुराने मित्रों को एकत्र कर रखा था। मित्रों की खुशी में उसे बहुत खुशी मिलती थी।


एक बार बड़े भाई अशोक कण्डवाल जी के कविता संग्रह के लोकार्पण पर भी उसने मुझे जबरदस्ती मंच पर बिठा दिया, जबकि मेरी साहित्य साधना शून्य थी। कैमरा उसके जीवन का अभिन्न अंग था। मुझ पर भी वह अक्सर कैमरा तान लेता था। दिनेश कण्डवाल के साथ इतनी यादें हैं कि लिखते-लिखते कभी भी पूरी नहीं होंगी। उसकी मौत की खबर से मेरा सारा परिवार दुखी है। उसकी यादें मेरे परिवार के सभी सदस्यों के साथ जुड़ी हुयी हैं। ईश्वर उस अद्भुत दोस्त की आत्मा को शांति प्रदान करे।