||गलोगी जल विद्युत उत्पादन केन्द्र एक ऐतिहासिक धरोहर||

||गलोगी जल विद्युत उत्पादन केन्द्र एक ऐतिहासिक धरोहर||



 


सन् 1900 ई0 में मसूरी की आबादी साढ़े चौदह हजार से भी अधिक हो गई थी जिसमें से चार हजार से अधिक यूरोपियन थे। इस बढ़ती आबादी के लिये पूर्व में सप्लाई किये जाने वाला पानी पर्याप्त नही था। अक्टूबर 1902 में तत्कालीन सैनेटरी इंजिनियर मि0 ऐकमेन ने कैम्पटी फाॅल से बिजली उत्पादन और पावर पंप द्वारा लैण्डोर तक पानी सप्लाई की दोहरी योजना बना कर प्रस्तुत की। उस समय जिसकी अनुमानित लागत छः लाख पचास हजार रूपये आंकी गई थी। कैमप्टी क्षेत्र टिहरी राजा के अधीन आता था। कैप्टी क्षेत्र में इस योजना निर्माण की अनुमति के लिये राजा सहमत नही हुये। तब विकल्प के रूप में बोर्ड ने भट्टा फाल का चयन किया।

 

भट्टाफाॅल मसूरी पहाडी के दक्षिण में पड़ता, अंग्रेजों को इसका लाभ यह था कि एक तो यह जगह ब्रिटिश राज के अन्र्तगत थी तथा दूसरा यह देहरादून रेल स्टेशन के नजदीक था। वर्ष 1900 में रेल दून पहुंच चुकी थी। भट्टा फाॅल की यह जल विद्युत योजना में कुछ आवश्यक तब्दीली के साथ अंग्रेजी हकूूमत की स्वीकृति के लिये सितम्बर 1904 में प्रस्तुत की गई। हकूमत ने मार्च 1905 में इस योजना की अनुमानित लागत रू 729560 की स्वीकृति प्रदान कर दी। योजना यह थी कि मसूरी माॅल से दक्षिण की तरफ दो मील की दूरी पर भट्टा गांव है जहां दो पहाड़ी जल धारायें आकर मिलती हैं। इसके नीचे पानी को रोककर हैड बनाया जाय और यहां से लोहे के पाइप द्वारा पानी को अपेक्षित बल के साथ उत्पादन केन्द्र तक छोड़ा जाये। बिजली का यह उत्पादन केन्द्र गलोगी में होगा जो हैड से एक मील की दूरी वाली ढलान पर है। इस स्कीम का एक भाग मसूरी में पानी की सप्लाई के लिये तथा दूसरा बिजली के प्रकाश के लिये इस्तेमाल करने की योजना थी। इस प्रकार ’’गलोगी’’ जल विद्युत केन्द्र की वर्ष 1907 में स्थापना हुई। यह अपने आप में देश की अनूठी योजना थी। अंग्रेजों ने इसी दौरान दार्जलिंग और शिमला मंे भी जल विद्युत उत्पादन का काम हिन्दुस्तान में शुरू किया। मई 1909 में गलोगी पावर हाउस ने अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करना शुरू कर दिया।

 

24 मई 1909 ’’एम्पायर डे’’ के अवसर पर गलोगी पावर हाउस से उत्पादित विद्युत उर्जा से पहली बार मसूरी में बिजली के बल्ब चमकने लगे। जनता के लिये इसका वितरण शुरू कर दिया गया। चार आना प्रति बी टी यू के हिसाब से इसको बेचा जाने लगा। इसका रख रखाव मसूरी पालिका करती थी। कलकत्ता, दार्जलिंग, शिमला के साथ मसूरी भी हिन्दुस्तान के बिजली उत्पादन और वितरण वाले नक्शे में शामिल हो चुका था। दिल्ली भी तब बिजली से मरहूम थी। गलोगी पावर हाउस के निर्माण में 600 मजदूरों ने काम किया। लंदन से पानी के जहाजों से मशीने हिंदुस्तान आई वहां से रेल मार्ग द्वारा देहरादून लाई गई। देहरादून से गढी डाकरा के रास्ते होते हुये बैलगाडियों खच्चरों से गलोगी निर्माण स्थल तक पहुंचाई गई थी। 1912 में गलोगी से उत्पादित बिजली देहरादून भी वितरित की गई। भले ही अंगे्रजों ने इस का निर्माण अपने लिये किया हो पर इसका लाभ हिन्दुस्तानियों को भी मिला। यह हमारे लिये आज ऐतिहासिक धरोहर है। खुशी की बात यह है कि यह अंगे्रजों द्वारा निर्मित देश की एक मात्र ऐसा केन्द्र है जो आज भी चालू है।

 

1907 में निर्मित इस ऐतिहासिक गलोगी हाइड्रो इलैक्ट्रिक जनरेशन सेंटर को देखने की मन में काफी इच्छा थी। देहरादून में जीवन के बासठ साल बीत गये। कई बार मसूरी जाना हुआ होगा पर गलोगी न जा पाये थे। आखिर इस कोरोना काल में इंतजार की वह घड़ी खत्म हुई और 6 जूलाई सोमवार को मै और इन्द्रेश ’’गलोगी पावर हाउस’’ देखने मोटरसाईकिल पर निकल पड़े। मसूरी से पहले भट्टाफाॅल को जाने वाले रास्ते में मुड़ने को हुये तो देखा कि गांव वालों ने कोरोना संक्रमण के भय से रास्ता बंद कर रखा था। लोहे के पाइप से बांधकर रास्ता रोका गया था और एक नोटिस भी लगाया हुआ था। बाकी तो सब खुल गया पर यह बंद था शायद गांव वालों ने पर्यटन के लिये लड़कों की आमद बढ़ने के कारण बिमारी के संक्रमण को रोकने की दृष्टि से यह रास्ता बंद किया होगा। वहां हमने गलोगी जाने का रास्ता मालूम किया जो तीन चार किलोमीटर नीचे छूट गया था। हमने बाइक वापिस मोड़ ली। वापसी में चार किलोमीटर चलने के बाद दांयी तरफ से पावर हाउस जाने का छोटा सा रास्ता है। रास्ते की दशा देख कर हमें विश्वास नही हुआ कि यही रास्ता है जिस पर हमें जाना है। फिर कन्फर्म किया ओर चल दिये। 200 मीटर जाने के बाद हमने बाईक साइड लगा कर खड़ी कर दी क्योंकि रास्ता बाइक से जाने लायक नही लगा इसलिये हमने पैदल ही चलने का निर्णय लिया।

 

अब हम पैदल चल पड़े उस कहने को पक्के सीमेन्ट वाले रास्ते चल पड़े। कुछ ही दूर चले होंगे आगे रास्ता बंद मिला। पूरा लैंडस्लाइड हो रखा था। एक जीप भी टूटी फूटी हालात में पड़ी थी जो मुख्य मार्ग से कभी गिर पड़ी होगी। हमने मलवे के बीच चलने का साहस कर ही लिया। ढंगार में संभल संभल कर पांव रखते हुये पहली बाधा पार की। सड़क देख कल हमने यह तो अनुमान लगा ही लिया था कि पिछले साल कि दौरान शायद ही इस सड़क पर कोई आदमी चला होगा। इस सड़क के किनारे किनारे स्ट्रीट लाइट जरूर लगी हुई थी। जो हाल के सालों मंे ही लगी होगी। थोड़ी दूर चलने पर फिर रास्ता गायब। सड़क का एक बड़ा भूभाग नीचे खिसक कर टूट पडा था। किसी तरह पहाड़ की तरफ चिपक कर यह हिस्सा पार किया। इस तरह आगे दो जगह और रूकावटें मिली। जहां सड़क पक्की थी तो वहां हरे रंग की काई जमी हुई थी। यह साढ़े तीन किलोमीटर की तीखी ढलान वाली पद यात्रा एक सहासिक यात्रा में बदल गई थी।

 

हम संभलते संभलते रास्ते बनाते हुये आखिरकार गलोगी स्टेशन पंहुच ही गये। वहां लाल व सलेटी रंग के पत्थर व टीन शैड वाले पुराने खूबसूरत से भवन को देख कर हमें तीर्थ दर्शन करने जैसा एहसास हुआ। वहां कर्मचारियों से बातचीत में पता लगा कि यह रास्ता तो एक साल से बंद पड़ा है। यहां आने के लिये दूसरा पैदल वाला रास्ता है जिसका इस्तेमाल कर्मचारी आने जाने के लिये करते हैं। वैसे पुरकुल भीतरली वाले रास्ते से होकर भी दून से यहां आया जा सकता है। यहां एक पानी का स्टेण्ड पोस्ट था, जिस पर ब्रिटिश कालीन टोंटी लगी हुई मिली। यह एक खजाने के मिलने जैसा था। भीतर जाकर देखा तो एक टरबाइन चल रही थी जो उस समय दशमलव 638 मेगावाट बिजली का उत्पादन कर रही थी। आज यहां से उत्पादित होने वाली इस बिजली की सप्लाई देहरादून के अनार वाला में होती है। तीन टरबाइन बंद थी। बंद होने के पीछे पानी की कमी होना बताया गया था। तीन मशीनों में दो मशीन उसी जमाने की थ एक को हटा कर बदला गया था। जनरेशन सेंटर से डेड किलोमीटर उपर नदी पर हैड बना है जहां से पहले तीन लोहे के पाईप से पानी आकर टरबाईन चलाता था अब उन्हें हटाकर तीस इंच का एक ही पाईप लगा दिया गया है। इस केन्द्र में पन्द्रह सोलह आदमी काम करते हैं जिसमें कुछ उपनल के तो पीआरडी के जवान भी तैनात हैं। कर्मचारियों के रहने के लिये आवासीय गृह भी हैं। कुछ देर यहां घूमंे। यही नदी आगे रोबर्स केव होते हुये टांस का नाम धारण कर लेती है। बीजापुर नहर इसी नदी से अंग्रजों ने निकाली थी। आज का दिन अच्छा बीता। वहां से वापसी की चढ़ाई हमने पगडंडी वाले रास्ते से की जो ज्यादा बेहतर था। इस कोरोना काल में सबके लिये अलग अलग अवसर हैं पर मुझे साथी इन्द्रेश का साथ मिलने से देहरादून को भीतर से देखने समझने का अवसर मिल रहा है।

 

साथ में इन्द्रेश नोटियाल

जानकारी का स्रोत: गजेटियर आफ देहरादून