मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं... आज से ठीक एक साल पहले जिस दिन लक्ष्मणझूला पुल को बंद करने का निर्णय लिया गया था, तब लक्ष्मण झूला की कथा और व्यथा आत्मकथा शैली में लिखकर आपके बीच आया था। आप सबका भरपूर प्यार और सहयोग मिला। आपने यह आलेख दो खंडों में पढ़ा और पसंद किया। आज फिर से इसे रिपीट कर रहा हूं... वही ताजगी अभी भी है... क्योंकि, अभी तक इसका विकल्प नहीं बना.
मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं..!
मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं..! पहचाना मुझे... क्यों नहीं पहचानोगे... आखिर आपने और आपकी पीढ़ियों ने एक नहीं बल्कि कई बार मुझे जिया है। मेरी बलिष्ठ भुजाओं पर विश्वास करके न जाने कितनी बार तुमने मेरे सहारे गंगा के इस छोर से उस छोर का सफर तय किया। आज मैं आपको बता रहा हूं... कि मैं बूढ़ा हो चला हूं...। मेरी हड्डियां अब दर्द देने लगी हैं..., मेरी कमर झुक गई है..., मेरे बाल पक गए हैं..., मैं अब पहले से ज्यादा लड़खड़ाने लगा हूं..., मेरी भुजाओं में अब वह जोर नहीं कि मैं अपनी औलादों के भार को ज्यादा देर तक थाम सकूं...। शायद आपको किसी और ने भी यह खबर सुना दी होगी...। हां! यकीन मानो मैं अब बूढ़ा हो चला हूँ...। मैंने भी जब सुना तो एक पल के लिए मुझे भी यकीन नहीं हुआ। भला कौन अपने आप को बूढा और जर्जर कहलाना पसंद करेगा। लेकिन दोस्तों यह हकीकत है, की एक दिन सभी को इस अवस्था में आना पड़ता है। खैर अब मैं बूढ़ा हो चला हूं...।
मुझे याद है जब अंग्रेजों के जमाने में सन 1927 से 29 के बीच मेरी शक्ल गढ़ी गई थी। उस जमाने की सरकार के लिए मुझे तैयार कर पाना बड़ी चुनौती थी। मगर, कोलकाता के सेठ रायबहादुर शिव प्रकाश झुनझुनवाला ने एक लाख 20 हजार रुपये की बड़ी आर्थिक मदद देकर सरकार का काम आसान कर दिया। इस झुनझुनवाला परिवार का समाज पर बड़ा उपकार रहा। इसलिए नहीं कि उन्होंने मेरे निर्माण में बड़ी आर्थिक मदद की, बल्कि इसलिए की मेरे से पहले भी इस स्थान पर एक पुल हुआ करता था। जिसे रायबहादुर शिव प्रकाश झुनझुनवाला के पिता रायबहादुर सूरजमल ने 1889 में बाबा काली कमली वाले के नाम से विख्यात स्वामी विशुद्धानंद महाराज की प्रेरणा से 50 हजार रुपए की लागत से बनवाया था। यह पुल 1923 में आई गंगा की बाढ़ में बह गया था। जिसके बाद मेरे निर्माण की कवायद शुरू हुई। मैं वह दिन कैसे भूल सकता हूं जब 11 अप्रैल 1930 को संयुक्त प्रदेश के गवर्नर मैलकम हेली ने मुझे आपकी सेवा के लिए समर्पित किया था। बस वह दिन था और आज का दिन है, जब मैं पहली बार अपने जीवन मे थकान महसूस कर रहा हूं। हां मैं अब बूढ़ा हो चुला हूं...।
इस बीच शायद आपको याद नहीं होगा लेकिन मुझे बखूबी याद है, मैंने हमेशा अपने होने की सार्थकता सिद्ध करने की कोशिश की। मैंने अपने 90 वर्ष के इस काल में ना सिर्फ भूगोल के दो हिस्सों को एक करने का काम किया, बल्कि देश और दुनिया की संस्कृति को आपस में घुलने-मिलने का भरपूर मौका दिया। मैं अब बूढ़ा भले ही हो गया हूं, मगर मेरी याददाश्त इंसान की तरह कमजोर नहीं है। मुझे खूब याद है कि मैंने कई पीढ़ियों को इस छोर से उस छोर तक पहुंचाया और लौटाया। मेरी उम्र के समाज ने मुझे भरपूर जिया और मुझे खुशी इस बात की है कि शायद मैंने अपनी उम्र के लोगों की चार पीढ़ियों को अपनी बाहों में दुलार दिया। आपको यकीन ना हो तो अपने घर के किसी कोने में पड़ी पुरानी एल्बम को तलाश दें, मैं छायाचित्र के रूप में आप की पीढ़ियों के साथ जरूर नजर आऊंगा। लेकिन अब मैं बूढ़ा हो चला हूं...।
मैं अपनी तरुणाई से आगे बढ़ चुका था। मैं तीर्थनगरी ऋषिकेश में अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर था। मुझे अपने होने पर गुमान था। लेकिन मैंने कभी धैर्य नहीं तजा। मैं शांत और गंभीर भाव से अपनी जिम्मेदारी निभाता रहा। सन 1978 मैं सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन अपनी फिल्म 'गंगा की सौगंध' की शूटिंग के सिलसिले में यहां आए थे। अमिताभ बच्चन तब अपनी कई फिल्मों की असफलता से हताश थे। इस फिल्म में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन मेरे ऊपर (लक्ष्मणझूला पुल) पर घोड़ा दौड़ाते हुए नजर आते हैं। उनकी यह फिल्म सफल रही। इसके बाद तो बॉलीवुड की तमाम फिल्मों के साथ मेरा नाता जुड़ा। 'महाराजा', सन्यासी', 'नमस्ते लंदन', 'बंटी और बबली, गंवार (राजेन्द्र कुमार), पूर्व और पश्चिम (मनोज कुमार ), पोगा पंडित (रणधीर कपूर), पहचान (मनोज कुमार) प्रभात (कामनी कौशल), सिद्धार्थ ( शशि कपूर), गंगा की लहरें (किशोर कुमार ), स्वामी बंगाली (मिथुन चक्रवर्ती) गंगा तेरा पानी अमृत ,करम (राजेश खन्ना ) आदि... और भी ना जाने कौन-कौन सी फिल्मों और धारावाहिक में आपने मुझे महसूस किया होगा। लेकिन अब मैं बूढ़ा हो चला हूं...
सुना है कि अब मुझे असुरक्षित घोषित कर दिया गया है। मुझे सचमुच यकीन नहीं हो रहा है कि मैं बूढ़ा हो चला हूं। दोस्तों; यकीन मानिए मेरी भुजाओं में आज भी वही शक्ति है, मैं ऐसा महसूस करता हूं। लेकिन आखिर हूं तो नस्वार ही..., मैं अजर-अमर और अविनाशी नहीं हूं... यह मैं भी जानता हूं। लेकिन न जाने कौन सा रोग लग गया है। अब मेरी कमर झुकने लगी है..., हड्डियां दर्द देने लगी हैं..., मैं पहले से ज्यादा लड़खड़ाने लगा हूं...! शायद बुढ़ापा ऐसा ही होता होगा। शायद, इसीलिए कहा जा रहा है कि अब मैं असुरक्षित हूं। अब मैं बूढ़ा हो चला हूं...।
खैर मेरा जीवन इतना भर ही था, जिसे मैंने संजीदगी के साथ भरपूर जिया। हो सके तो मेरे जीवन से कुछ सीख आप भी ले लो। मैं बूढा भले हो गया लेकिन जीने, हंसने, खेलने, खिलखिलाने और मस्ती के पल मैं आज भी तलाश रहा हूं...। मैं जब तक रहूंगा, तब तक जिऊंगा, भरपूर जीऊंगा। आप मुझे याद करोगे ना..., एक बार उस तस्वीर को पलट कर देखोगे जो तुमने मेरे साथ ली थी..., उस दिन को याद करोगे जब तुम बेफिक्र होकर गंगा की उछलती-कूदती लहरों के ऊपर मेरे संग चले थे..., मुझे तो आपके साथ बिताया हर पल याद है। क्योंकि मैं लक्ष्मण झूला सेतु हूं...! मैं लक्ष्मण झूला सेतु हूं...! मैं लक्ष्मण झूला सेतु हूं...
- दुर्गा नौटियाल दैनिक जागरण, ऋषिकेश में कार्यरत है