हम चाइना पीक की जड़ में रहते हैं

||हम चाइना पीक की जड़ में रहते हैं||

 



डी एस बी के गलियारों से — (3) मल्लीताल के भी सबसे ऊपरी इलाक़े में रहने वाले हम लोग यूँ देखा जाय तो चाइना पीक के निचले इलाक़े में रहते थे. आज उस पहाड़ की पहचान भले ही नैना पीक हो लेकिन बोलचाल की भाषा में आज भी पुराने लोगों की यादों में वह अपने पुराने नाम से ही धरा हुआ है.




 

आसपास के लोग अक्सर बातचीत में कहा करते कि हम चाइना पीक की जड़ में रहते हैं. हमारे घर के ठीक नीचे की सड़क से चाइना पीक को जाने वाले पर्यटक जब घोड़ों पर सवार होकर जाया करते तो मैं सोचती थी कि ये लोग वहाँ आखिर करने क्या जाते हैं. किसी ने कहा कि वहाँ से पूरा नैनीताल दिखता है. मैं सोचती, ठीक है नैनीताल दिखता है लेकिन उसे देखने के लिये इतनी दूर चढ़ाई करके जाने की भला क्या ज़रूरत है. वो तो आप देखिये, अलसुबह कभी घर से निकलकर — जब सड़कें बिल्कुल ख़ाली हों, रात करवट बदलकर बेआवाज़ बस उठकर जाने ही लगी हो, ताल के पानी में नावें भी न उतरी हों, वीपिंग विलोज़ अपनी लंबी लंबी नाज़ुक टहनियों से झील के सीने पर धीरे धीरे लहराते हुए ऊँगलियाँ फिरा रहे हों, चिनार के पेड़ सर्रर सर्रर करते हुए आपके कानों में कोई गीत चुपके से गुनगुना जायें, नैना देवी मंदिर में किसी पुजारी ने हाथ उठाकर वो बड़ा सा घंटा बजा दिया हो और उसकी गूँज पहाड़ों से टकराकर आपके भीतर तंरगित होती चली गई हो, मंदिर के बाज़ू में उसके सहोदर गुरुद्वारे से गुरबानी की ध्वनि से आपने एक असीम शांति में बहकर आँखें मूँदी ही हों कि तभी सामने मस्जिद से अजान की आती आवाज़ों ने किसी अद्भुत संगीत को रचने की तैयारी की ही हो और तभी पैरों में महावर रचाये नुपुर बाँधे पूरब की ओर से छन छनकर आती सूरज की रक्तिम किरणों को देखकर आप अनायास ही मुस्करा दें.



 

अब समझ आता है कि ऐसा सोचने में न केवल भीतर एक अहं की भावना थी बल्कि उन चीज़ों को नकारने की प्रवृत्ति भी जो हमें आसानी से उपलब्ध हों. यही वजह रही कि जीवन का सबसे लंबा और सबसे यादगार समय एक ही शहर में बिताने के बावजूद कभी मन में नहीं आया कि एक बार चाइना पीक जाकर देखना तो चाहिये ही. ऐसे कितने ही सहज मौक़ों को हम हाथ से यूँ ही फिसल जाने देते हैं.



 

उस समय सा लड़कपन और वो बेफ़िक्री का आलम. तो बात ये थी कि हमारे हिसाब से कॉलेज जाने के लिये सुबह के वक़्त अयारपाटा से निकलने वाली सड़क हमारे लिये ज़्यादा मुफ़ीद बैठती थी, क्योंकि ये थोड़ी उबड़ - खाबड़ भले ही हो पर सीधी - सीधी ठीक हमारे कॉलेज के गेट पर जाकर मिलती थी. उस रास्ते से जाने का फ़ायदा यह था कि रोज फ्लैट्स तक की उतार और फिर वहाँ से कॉलेज तक की उबाऊ चढ़ाई से छुटकारा मिल जाता था. यही कोई चालीस पैंतालीस मिनट में हमलोग तक़रीबन तीन किलोमीटर के थोड़े बहुत उतार चढ़ाव वाले रास्ते को आराम से बतियाते हुए पार कर लेते थे. हमारे अलावा और भी कई लोग उस समय कॉलेज जाने वाले होते थे और इस तरह अधिकतर सुनसान पड़ी रहने वाली वो सड़क कम से कम सुबह के वक़्त कॉलेज जाने का एक बेहतर विकल्प थी. उस इलाक़े में उन दिनों तक कोई होटल भी नहीं बना था और दूर दूर बने कई पुराने ब्रिटिशकालीन बँगले और ख़ूबसूरत कॉटेज अब लोगों से आबाद थे. इसी रास्ते का कुछ हिस्सा कॉलेज के नज़दीक पहुँचते हुए सँकरा हुआ जाता था और उतने हिस्से में काफ़ी दूर तक कोई बसासत भी नहीं थी. सर्दियों में इसी सँकरे रास्ते पर पाला बर्फ़ की सफ़ेद रज़ाई ओढ़े चैन से पड़ा रहता था.



 

कुछ दिनों से अफ़वाह उड़ रही थी कि आबादी वाले इलाक़े के ख़त्म होने के बाद जो एक पतला रास्ता कॉलेज की तरफ़ जाता है उसकी पहाड़ी पर कुछ लड़कियों को एक भूत ने दर्शन दिये हैं. उस कन्या प्रेमी भूत की विशेषता यह थी कि वो केवल उस रास्ते से गुज़रने वाली लड़कियों को ही अपने दर्शन देने लायक़ समझता था. लड़कों को उसने इस सौभाग्य से वंचित किया हुआ था. हाँ, लड़कियों पर उसकी कृपा बराबर बिना किसी भेदभाव के बरसती थी. जब भी लड़कियाँ वहाँ से गुज़रतीं तब भूत महाशय उनपर आस्था रखने या न रखने वाली सभी लड़कियों पर ऊपर पहाड़ी से फूल की तरह पत्थर बरसाकर उन्हें कृतार्थ करते थे. बात हमारे कानों तक भी पहुँची. दो- एक आस्थावान लड़कियों ने डर ज़ाहिर भी किया लेकिन मेरे सहित बाक़ी सभी ने इस बात को हवा में उड़ा दिया.



 

“रोज़ हम ब्रुकहिल से निकलकर आते हैं कि नहीं, उनलोगों से बड़ा भूत होगा क्या वो ?” मैंने ही हँसते हुए कहा था.



 

ज़ाहिर है कि बचपन से जिन परियों और भूतों की कहानियों का हमने आनन्द उठाया था वो भीतर कहीं गहरे अपनी पैठ बना चुका था जिसकी वजह से दूसरी कई लड़कियों ने उस रास्ते से आना ही छोड़ दिया था.



दरअसल हम लोगों का ये पक्का यक़ीन था कि अकेले तो हम कुछ नहीं कर सकते लेकिन साथ रहें तो किसी की क्या मजाल जो कोई कुछ उल्टी - सीधी हरकत कर दे. मेरे जैसी डरपोक लड़की तो कभी अकेले वहाँ से निकलने की हिम्मत न करती लेकिन आठ - दस लड़कियों का ग्रुप कोई छोटी - मोटी चीज़ नहीं होता. भूतप्रेत की कहानियाँ ज़रूर सुनी थीं लेकिन इस बात पर सहसा हमें यक़ीन नहीं हुआ. इस तरह उन लड़कियों के डर को ख़ारिज कर दिया गया और हमने आपस में गपियाते हुए उसी रास्ते से कॉलेज जाना बदस्तूर जारी रखा.



 

श्रीमान् भूतजी को शायद हमारा साहस भा गया. इस अफ़वाह को फैले काफ़ी दिन हो गये थे और भूत के दर्शनों से हम अबतक वंचित थे. लेकिन भूत के घर देर है अँधेर नहीं. एक दिन उसने कृपा कर ही दी. दर्शन देने की जो ख़ास जगह भूत ने मुक़र्रर की हुई थी वहाँ पर एक मोड़ था, कच्ची सड़क थी जिसके एक तरफ़ तीखी ढलान थी और दूसरी तरफ़ पहाड़ी जिसपर ऊँची जँगली घास और कुछ छोटे पेड़ लगे हुए थे. सुबह के उस समय पूरब से पड़ती धूप ठीक हमारे सामने होती. उस दिन भी हम रोज़ की तरह अपने में मगन कॉलेज की ओर क़दमताल करते और बतियाते जा रहे थे कि अचानक उस मोड़ पर आते ही ऊपर से पत्थरों की बरसात हुई. एक तो ठीक मेरे पैरों के आगे गिरा. ग़नीमत बस ये रही कि किसी के माथे पर तिलक नहीं लग गया. हम सब भौंचक्के रह गये. डर के मारे सबकी हालत ख़राब हो गई. मेरे भीतर न जाने कैसे भूत महाशय की इस क्रिया की तुंरत प्रतिक्रिया हुई और मैंने सिर उठाकर पहाड़ी की ओर ऊपर देखा. काला चोगा पहने साक्षात भूत ने दर्शन दिये और झट से पेड़ - पौधों के पीछे ओझल हो गया. सूरज की चमकदार रौशनी का गोला ऊपर पहाड़ी के पत्थरों से टकराकर एक दिव्य आभामंडल का निर्माण कर रहा था और हमारे परम प्रतापी भूत महाशय उसमें विलीन हो गये थे.



 

हम लोग कुछ देर रुके, इंतज़ार किया. कुछ डर के मारे काँप रही थीं. ये वही थीं जिनकी बात न सुनकर हम इस रास्ते से चले जा रहे थे. “अब हो गयी तसल्ली? और आओ यहाँ से. पहले ही कहा था कि ये रास्ता ठीक नहीं है पर तुम लोग सुनो तब ना. बहुत माडर्न बनने चले हैं.” मैं, ममता, शशि अब भी मानने को तैयार तो नहीं थे लेकिन उस वक़्त हमने चुप रहना ही बेहतर समझा. जब लगा कि अब भूत जी दुबारा दर्शन नहीं देंगे तब हम फिर अपने रस्ते चल दिये. ऐसा नहीं था कि हम झाँसी की रानी रेजीमेंट से ताल्लुक़ रखती थीं, पर ये साथ रहने की ताक़त थी कि ऐसा होने के बावजूद हम वहीं से कॉलेज जाते रहे. हैरानी की बात ये है कि उस दिन के बाद भूत ने अपने दर्शनों का सुअवसर हमें कभी नहीं दिया फिर भी वहाँ से गुज़रते हुए एक निगाह तो ऊपर की ओर उठ ही जाती थी. हमें लताड़ने वाली लड़कियाँ भी हमारे साथ ही आ रही थीं. एक दिन हम वहाँ से निकल ही रहे थे कि मैंने अचानक कहा, “हेमा ! ऊपर देख.” चलते चलते वो इतनी ज़ोर से उछली जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो. जब उसने मुझे हँसते हुए पाया तो गुस्से में मुझे मारने दौड़ी. बाकी सब भी अचानक इस हरकत से पैदा हुए हास्य से लोटपोट हो गये.



 

कुछ दिनों बाद पता चला कि शहर के कुछ नास्तिक लड़कों ने भूत महाशय को पकड़कर उनकी अच्छी तरह से कुटाई और ठुकाई दोनों करके उन्हें ऐसा प्रसाद दिया कि उसके बाद से उन्होंने दर्शन देने से तौबा कर ली.



( चित्र प्रिय मित्र प्रवीण से पूछे बिना उड़ाया)