पहाड़ी लोक गीत बताते दिनचर्या 

||पहाड़ी लोक गीत बताते दिनचर्या||

 

गढ़वाल अंचल का एक बाजूबंद गीत जिसमें पहाड़ के काश्तकार पति पत्नी के खेती-पाती व पशुपालन के काम में एक-दूजे को परस्पर सहयोग करने की प्रबल भावना का सुंदरतम चित्रण हुआ है। उत्तराखंड की लोकसंस्कृति के प्रमुख अध्येता रहे डॉ.गोविंद चातक की पुस्तक "गढ़वाली लोकगीत विविधा"में संकलित लोकगीतों से इस गीत को साभार लिया गया है।



 


तू होली तलौ की माछी

मैं होलूं सरग को बादल

तू होली बण बाख़री

मैं होलूं नौ सुर बाँसुल

तू पिजाली चांदू भैंसी

मैं काटुल घास रौंसी

ऐगे बसगाल लगौ परोठि पीठि

खोल दे भैंसी पूज्याल रोट

मैं लौंलू भैंसी तू चल आग

ऊंची धारू मां में रई जागी




 

(हिंदी भावार्थ : अर्थात तू तलाब की मछली बन जाना, मैं आकाश का बादल बनूंगा।तू जंगल की बकरी बन जाना , मैं नौ सुर की बांसुरी बनूंगा। तू 'चांदू'' भैंस का दूध दुहेगी, मैं घास काट लाऊँगा। बसगाल (चौमास) आने को है परोठि पीठ पर रख, मैं भैंसों को ले चलूंगा तू आगे चलेगी। भैंसों को खोल दो देवताओं को रोट-भेंट चढायेंगे। चल पहाड़ के धार के छानियों में रहने जाएंगे।)

 

पहाड़ के लोकगीतों का एक रूप बारहमासा भी है यहां के लोकगीतों में ऋतुओं का वर्णन अक्सर देखने सुनने को मिलता है सामन्यतः बारहमासा को एक तरह ऋतुवर्णन का ही परिष्कृत और विकसित रूप माना जाता है। बारहमासा की अपनी खास भाव परम्परा होती है जिसमें प्रकृति के साथ ही मानव विशेषतः स्त्री मन की वेदनाओं की अभिव्यक्ति साफ तौर पर झलकती है।यहां के बारहमासा गीतों में ,सौंण-भादों का चित्रण इस तरह आया है।

 


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मास पैलो बगसाल को आयो यो असाड़

मैं पापणि झुरि-झुरि मरुयु मास रयो नि हाड़

 

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मास आयो भादों को डान्डु कुरेड़ी लौंखि

तेरि खुद मा स्वामी जिकुड़ी मा बिजुलि चौंकी


 

भावार्थ-

चौमास का पहला माह। आसाड़ आया है,मैं पापिनि झुर झुर कर मरी ,शरीर पर मेरे न हाड़ रहा न मांस।

भादों का माह आया डानों कानों में बादल घुमड़ कर बरसे,हे पिया याद में तेरी मेरे कलेजे में बिजली सी कडकी।