सामाजिक चेतना के अग्रदूत ‘भरपुरू नगवान’

||सामाजिक चेतना के अग्रदूत ‘भरपुरू नगवान’||

 


सर्वोदयी 'भरपूर नगवान' की 12 वीं पुण्यतिथि (9 अगस्त, 2008) की याद, जीवन-संघर्ष का दस्तावेज


 

देश में सत्तर के दशक तक सामाजिक सेवा के क्षेत्र में सर्वोदय आंदोलन अग्रणी भूमिका में रहा है। आजादी के बाद सत्ता से अलग रहकर अनेकों जागरूक युवाओं ने सर्वोदयी कार्यकर्त्ता के रूप में सामाजिक समानता के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसी सर्वोदयी प्रेरणा से प्रेरित होकर उत्तराखंड में भिलंगना घाटी के तीन युवा मित्रों ने जातीय भेदभाव को दरकिनार करते हुए 26 जनवरी, 1950 से एक साथ संयुक्त परिवार के रूप में रहने का संकल्प लिया था। टिहरी गढ़वाल जनपद में धर्मगंगा और बालगंगा के संगम पर स्थित बूढ़ाकेदार (पट्टी-थाती कठूड़) के धर्मानन्द नौटियाल (सरौला-ब्राह्मण), बहादुर सिंह राणा (थोकदार-क्षत्रिय) और भरपुरू नगवान (शिल्पकार) का यह संयुक्त परिवार 12 साल तक निर्बाध रूप में जीवन्त रहा था।



 

उक्त तीन मित्रों के सहजीवन के एक पात्र थे भरपुरू नगवान (जन्म-12 जनवरी, 1920, मृत्यु-9 अगस्त, 2008)। रक्षिया गांव (बूढ़ा केदारनाथ, टिहरी गढ़वाल) के पांचवीं पास, शिल्पकार भरपूरू नगवान का व्यक्तित्व अदम्य साहसी, हुनरमंद, व्यसनों और अंधविश्वास से मुक्त और जीवन की स्पष्ट दृष्टि वाला था। वे आजीवन एक निडर और समर्पित सर्वोदयी सामाजिक कार्यकर्ता थे। यह प्रसन्नता की बात है कि भरपुरू नगवान जी की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए आज उनके सुपुत्र आदरणीय बिहारी भाई जी और दामाद सुरेश भाई जी की सामाजिक सेवा के प्रति ख्याति उत्तराखंड से बाहर पूरे देश-दुनिया में है।



 

यह सुखद संयोग है कि कर्मवीर भरपुरू नगवान जी के संपूर्ण जीवन और जीवन संघर्ष पर समय साक्ष्य, देहरादून और लोक जीवन विकास भारती, बूढ़ाकेदारनाथ, टिहरी गढ़वाल ने एक पुस्तक का प्रकाशन किया है। इस पुस्तक का मूल लेखन बिहारी भाईजी और संपादन युवा पत्रकार प्रेम पंचोली एवं जयशंकर नगवान ने किया है। 11 अध्यायों की यह पुस्तक भरपुरू नगवान जी के जीवन के पन्नों को ही नहीं खोलती वरन देश के स्वाधीनता के बाद के हालातों की पड़ताल भी बखूबी करती है। यह पुस्तक साफ कहती है कि सामाजिक विषमतायें चाहे कितनी भी कठोर हों उनको सामुहिक चेतना से कम किया जा सकता है। समाज की वर्जनायें तभी टूटेगीं जब हर वर्ग और जाति में धर्मानन्द नौटियाल, बहादुर सिंह राणा और भरपुरू नगवान जैसे जागरूक और साहसी लोग अपनी सामाजिक सक्रियता और सेवाभाव से समाज का नेतृत्व करेंगे।



 

महत्वपूर्ण यह है कि लगभग 70 साल पहले बूढ़ाकेदारनाथ क्षेत्र में सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए तीन युवाओं भरपुरू नागवान, बहादुर सिंह राणा और घर्मानन्द नौटियाल ने जो अलख जगाई थी उससे आज हमारे सामाजिक व्यवहार में कितना बदलाव आया है। यह पुस्तक इस संदर्भ में एक शोधपरक संदर्भ साहित्य के रूप में सामने आयी है। मेरा अनुरोध है कि युवा और सामाजिक कार्यकर्ताओं को इस पुस्तक का अवश्य अध्ययन करना चाहिए।