पत्थरों के पारखी अलविदा


||पत्थरों के पारखी अलविदा||

 

कल पत्थरों के महान पारखी और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के पद्मभूषण से सम्मानित भूगर्भ विज्ञानी डा. खड्ग सिंह वल्दिया साढ़े त्रिरासी वर्ष की उम्र में इस धरती से विदा हो गए। उनका जीवन संघर्ष और कुछ कर दिखाने का अटूट संकल्प उन्हें एक अप्रतिम वैज्ञानिक के रूप में दुनिया के सामने रखता है।

 

उनसे मेरा संपर्क ‘पथरीली पगडंडियों पर’ पुस्तक की पांडुलिपि के दौरान हुआ जो मुझे प्रसिद्ध इतिहासकार और ‘पहाड़’ संस्था के साथी डा. शेखर पाठक ने भेजी थी। पांडुलिपि को पढ़ कर मुझे लगा था कि पहाड़ों में पथरीली पगडंडियों की खाक छानते और पत्थरों के नमूने लेते, पत्थरों के पारखी की उस पुस्तक का नाम पथरीली पगडंडियों ही होना चाहिए। उसी पांडुलिपि पर मेरे सुझावों के सिलसिले में डा. वाल्दिया से पहली बार मेरी फोन पर बातचीत हुई थी। बहुत आत्मीय बातचीत की थी उन्होंने।



 

उसी पांडुलिपि के बहाने डा. खड्क सिंह वल्दिया की वर्क-दर-वर्क जिंदगी की जैसे पूरी किताब पढ़ गया मैं। हिंदी में लिखी गई उनकी यह आत्मकथा ‘पथरीली पगडंडियों पर’ पहाड़ के लिए समर्पित साथियों की संस्था ‘पहाड़’ ने पहाड़-पोथी के रूप में प्रकाशित की है।

 

इस पुस्तक की शुरूआत में डा. वल्दिया लिखते हैं कि जीवन में स्मृतियों के अलावा और कुछ सम्पत्ति जोड़ ही नहीं पाया था।…“तभी ख्याल आया कि मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच चुका हूं जहां बुढ़ापे की दुर्दांत सीमा शुरू होती है। विस्मृति के गर्भ में जाने से पूर्व अपनी यादों को आज न संजो पाया तो फिर कभी न लिख पाऊंगा। बोलने-लिखने का रोग तो लगा ही है मुझे। तब लिख ही डाला। बिगड़ती हुई स्मृति में अटकी आपबीती, कुछ घटनाओं और अनुभवों के बारे में।”

 

तो, मैंने भी सबसे पहले डा. वल्दिया के बूबू (दादा) लछमन सिंह को नमन किया जिन्हें यह पुस्तक समर्पित की गई है। उन्ही बूबू ने देश और दुनिया को प्रतिभाशाली भूगर्भ विज्ञानी खड्ग सिंह वल्दिया दिया। मैं ‘पहाड़’ के साथी शेखर पाठक की इस बात से सहमत हूं कि कई जीवन नई पीढ़ी से ओझल ही रह जाते हैं क्योंकि न वे लिखते हैं और न कोई उनके बारे में लिखता है। डा. वल्दिया का आभार कि उन्होंने अपनी यह आपबीती लिख दी है जो नई पीढ़ी के लिए मशाले-राह का काम करेगी।

 

यह किताब पढ़ते-पढ़ते मैं सुदूर बर्मा (म्यांमार) में खड्क सिंह वल्दिया नाम्नी इस बालक के गांव कलौं पहुंच गया जहां इसका जन्म हुआ था। वहां से मैं किताब में इसी की अंगुली पकड़ कर, इसके साथ इसके जीवन की पथरीली पगडंड़ियों पर चल पड़ा। इस यात्रा में मैंने भी इस बालक के जीवन के वे बीते दिन देखे, वे जाने-अनजाने लोग देखे और उन दिनों की तमाम बातों में शामिल हुआ। उस साधु से भी मैं मिला जो इस बालक से कह रहा था- बच्चा तेरी उम्र बस 33 साल है! खुशी है कि वल्दिया जी जीवन के तिरासी वसंत देख कर विदा हुए।

 

लेखक वल्दिया जी का कहना है कि उनके जीवन का सबसे बड़ा मोड़ था- बूब लछमन सिंह का बर्मा से अपने दोनों पोतों को लेकर अपने मुलुक को लौटना। जीवन की पथरीली पगडंडियों पर क्या-क्या नहीं देखा, क्या-क्या नहीं झेला बालक खड्ग सिंह वल्दिया ने। लेकिन, जो कुछ झेला-भोगा वह हर तस्वीर उसके मन के कैनवस पर चित्रित होती गई। कलौं गांव को वह स्वर्ग का टुकड़ा कहता है। अनेकता में एकता का नमूना था इसका वह गांव। इसने वहीं पढ़ा, वहीं लिखा कभी हिंदी में, कभी बर्मी में, कभी अंग्रेजी में, तो कभी जापानी में। आमां-बूबू की सुनाई कहानियों ने बर्मा में इसे जिंदगी के नए सपने दिखाए। इसके गांव कलौं को कभी अंग्रेजों ने रौंदा, कभी जापानियों ने। बूबू ने बहुत कमाया, बहुत गंवाया पर समझ में आया कि एक चीज ऐसी है जिसे कभी गंवाया नहीं जाता, केवल अर्जित किया जाता है। वह है- ज्ञान। इसलिए वे अपने मुलुक लौटे ताकि वे अपने पोते खड्ग सिंह और गुलाब सिंह को पढ़ा सकें।

 

बर्मा में नेताजी सुभाष बोस के भाषणों को सुन कर खड्ग सिंह को सबसे बड़ी शिक्षा यह मिली कि हम सब हिंदुस्तानी हैं। वहां सबकी एक ही जाति थी- हिंदुस्तानी’, एक ही मजहब था- ‘आजादी’, एक ही भाषा थी ‘हिंदी’ और एक ही अभिवादन था- ‘जय हिंद’। इसका बचपन ऐसे समाज में बीता, “जो उस बगीचे के समान था जिसमें हर किस्म के, हर रंग के फूल खिलते थे। मुहल्ले में साथी थे रफीक नाई का बेटा छोटू, मथुरा पाण्डेय पान वाले का सुपुत्र तुलसी, फतह मोहम्मद मोची की बिटिया मुन्नी, बशीर बेकर की बेटी जेना, सिख दर्जी का मुंडा लोचन। जब यह हिंदी स्कूल में गया तो दोस्ती का दायरा कुछ बढ़ा। मुलुक के अपने इलाके के किदारी, दीवानी, प्रेमवल्लभ, मधु, भागु, परु आदि मित्र बन गए। तब कोई किसी का उपनाम (सरनेम) नहीं जानता था, न किसी की जाति के बारे में कुछ ज्ञान था। वल्दिया जी लिखते हैं, मुझे तो भारत आकर पता लगा कि हम वल्दिया कुनबे के हैं। कांर्वेट स्कूल में मेरे दोस्त थे बर्मी बाविन, शान ईसाई बार्बरा वाछित, चीनी विंचैट और ईरानी शिराजी।”

 

‘पथरीली पगडंड़ियों पर’ हमें बड़े मार्मिक दृश्य दिखाई देते हैं जिन्हें डा. खड्ग सिंह वल्दिया कभी नहीं भूल पाए: बिना मां की नन्हीं बच्ची का अपने छोटे भाई को नमक के साथ सूखा चावल खिलाना, बरसते बमों के बीच जंगलों में यहां-वहां जान बचाना और अंग्रेजों तथा जापानियों के हमले। बांस की खटिया के नीचे पोटली में छिपाए आमां के अंग्रेजी नोट भी उन्हें याद रहे और मिल्क मेड का वह डिब्बा भी जो किसी अंग्रेज सैनिक ने उछाला था और उस के कारण बूबू की डांट सही थी। वहीं बर्मा के जंगलों में बालक खड्ग सिंह ने सेमज्यू का मंदिर भी देखा था।

 

बालक खड्ग सिंह रंगून से कलकत्ता पहुंचा तो देखा कि एक ओर ‘हर-हर महादेव’ तो दूसरी ओर ‘अल्लाह हो अकबर’ के नारे लग रहे हैं। दंगे का वह दृश्य देख कर यह बालक सोचता रहा कि इसके सपनों का हिंदुस्तान कहां है? आशा जगी कि शायद आगे होगा। यह पिथौरागढ़ की सुरम्य सोर घाटी में पहुंचा। सोर घाटी का जो दृश्य देखा, तो देखता ही रह गया-

 

“पहली अप्रैल का वसंत। ढलते सूरज की सुनहरी किरणों में नहा रही थी सोर घाटी। कितनी सुंदर, कितनी सुरम्य, कितनी रंगीन! बलखाती धीरे-धीरे बहती रईं सरिता। हरी-भरी, फसल से ढके लंबे-घुमावदार खेत। देवदार और पांकर के घने पेड़ों के बीच चमकती-छुपती पिथौरागढ़ की कच्ची सड़कें। फूलों से लदे आड़ू और मेहल के खेत। खुशबू से भरी बयार में नाचते-झूमते गेहूं और जौं के पौधे। ऐसा लगा कि जैसे गेहूं की फसल में लहरें उठ रही हैं। वृक्षों में बैठी चिड़ियाएं गा रही थीं।”…..लेकिन, फिर उन्हीं लोगों के बीच ब्राह्मण, ठाकुर, शिल्पकार जैसा वर्ग भेद देख कर इसके मन को गहरी ठेस लगी। यह बचपन में देखी उस सुरम्य सोर घाटी को कभी नहीं भूला। शायद बचपन में देखे ऐसे दृश्य कोई भी नहीं भूलता। यह अपने गुरुजनों को भी बड़े मन से याद करता है। इसे बचपन में गोचरों में चराए गाय-बैल और घट्टों में आटा पिसवाना भी याद है। यह बालक उन झोपड़ियों और गोठों में सोया जो भैंसों की सांसों से गरमाती थीं। यह ढाबों-दुकानों के बाहर पतली पट्टी की बेंचों और खुली चट्टानों में भी सोया। यह लखनऊ शहर के उस अबोध पागल युवक की मुस्कुराहट भी नहीं भूल पाया जिसे इसने वहां देखा था।

 

कान से दुनिया सूनी हो जाने पर भी इस बालक को कोई व्यथा अनुभव नहीं हुई। इसने उसी खामोशी में जीना और खुश रहना सीख लिया। जब शिक्षक बहुगुणा जी कहते हैं कि तुम भूगर्भ विज्ञानी बनो जिसमें न सुनना है, न बोलना, बस पत्थरों को ताकना है, तो यह बालक जीवन की वही राह चुन लेता है। लखनऊ की नफ़ासत में यह सीखता है, पुराने को बदल कर नया स्वीकारना और सरयू नदी की धाराओं से सीखता है अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने में किसी बैसाखी का सहारा न लेना। नायब सूबेदार बूबू से सीखता है, समाज के हित में विज्ञान के उपयोग का दर्शन। यह बालक बड़ा होकर जो कुछ पढ़ता और सीखता है उसे आम लोगों तक पहुंचाने के लिए धर्मयुग, नवनीत, साप्ताहिक हिंदुस्तान और विज्ञान जगत जैसी पत्रिकाओं में लिखता है।

 

यह विकट यात्राएं करता है, विकट परिस्थितियों में जी रहे साथी मानवों से मिलता है। बहुत कठिन और डरावनी हैं इसकी फील्ड यात्राएं, लेकिन उन यात्राओं से यह जो अर्जित करता है वह इसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिला देता है। अपनी इन्हीं खोज यात्राओं में इसे स्ट्रोमेटोलाइट मिलते हैं, मैगनेसाइट और अन्य खनिजों के भंडार मिलते हैं। सुदूर बर्मा के कलौं गांव और सोर घाटी में पला यही बालक बड़ा होकर अमेरिका, चीन, जापान और अन्य देशों की यात्राएं करता है, वहां जाकर शोध करता है।

 

और, यही सीधा-सरल युवक छद्म अनुवादक बन कर जो पारिश्रमिक अर्जित करता है उससे अपनी छोटी बहन हंसा की शादी करता है और स्वयं एक मोटी पुस्तक का भाषांतर करके उसके पारिश्रमिक से अपनी शादी करता है। पत्नी इंदिरा के बारे में यह लिखता है, “विवाह के बाद अध्यापन से नाता तोड़ कर वह मेरी हो गई; हर घड़ी, हर पल साथ रहने के लिए। अपने को निचोड़ कर सुख-दुःख की अगणित धाराओं में बहा कर वह परिवार को तृप्त करने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझती है। मेरे जिद्दी स्वभाव के कारण उत्पन्न कठोर परिस्थितियों में भी उसने आदर्श की महिमा बनाए रखी। उसके प्रेम की स्निग्धता के कारण हमारे बड़े परिवार की मशीन मजे़-मज़े में चलती रही। जब कभी मैं निराश हुआ, हताशा ने मुझे घेरा, या पराजित अनुभव किया, इंदिरा ने अपनी वाणी से मेरे मन में ऊर्जा भर कर मुझे ललकारा-समस्याओं से लड़ने के लिए उत्प्रेरित किया।” अद्भुत जीवट का व्यक्ति है यह भूगर्भ विज्ञानी व्यक्ति। आने वाली तमाम पीढ़ियों के लिए एक बड़ी प्रेरणा का स्रोत है यह।

 

यह संवेदनशील व्यक्ति प्रकृति में जीता है और प्रकृति को आत्मसात करता है। यह नन्हीं चीटियों से लेकर चहचहाती चिड़ियों और विशाल हाथियों तक की भावनाओं को अनुभव करता है। घनघोर बारिश में अपने पंखों में दो बच्चों को समेट कर पेड़ के कोटर में बैठे पक्षी को देखता है और उसके साथ इसका भावनात्मक लगाव हो जाता है। नामिक ग्लेशियर के निकट के गांव से तेजम के रास्ते में मिली एक बकरी के बारे में यह लिखता है, “एक चट्टान पर खड़ी बकरी बड़े करूण स्वर में मिमिया रही थी- जैसे रो रही हो। मैंने मीठी आवाज में पूछा- अरी बकरी! साथियों से बिछुड़ गई हो क्या? रूआंसी-सी आवाज में वह फिर मिमियाई।” यह उसके सिर पर हाथ रखता है और वह साथ चल देती है चार किलोमीटर तक।

 

यह भूगर्भ विज्ञानी चट्टानों को देखता, डायरी लिखता तो वह भी रूक जाती। गांव पहुंचने पर वह भेड़-बकरियों के झुंड की ओर दौड़ी और रूक कर, सिर घुमा कर इसकी ओर देखा। मिमिया कर कुछ कहा। इसने हाथ हिला कर ‘बाइ बाइ’ कर दिया। दोनों ने एक-दूसरे की बात समझ ली। लेखक का कहना है, “जब तक हम जीव-जंतुओं, पक्षियों और वनस्पतियों की भाषाएं समझ नहीं लेंगे तब तक हम जीवन का संपूर्ण सुख अर्जित नहीं कर सकेंगे।”

 

इसे ऊंचे ओहदों के अवसर मिलते हैं और यह नौकरी के दांव-पेंचों को भी गौर से देखता और बेबाक होकर उन्हें बयां करता है। विज्ञान के पुरोधाओं के सान्निध्य में यह नूतन कल्पनाएं करता है, नई योजनाएं बनाता है और नए स्वप्न संजोता है। तीन-तीन बार कुलपति बनने के प्रस्तावों को ठुकराने का साहस भी इसने दिखाया क्योंकि जीवन की जिन पथरीली पगडंडियों पर चल कर यह अपने मुकाम तक पहुंचा, उन्होंने इसमें यह अदम्य साहस भर दिया। तभी तो खिज़ां के मौसम में भी अगर इस पर पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे पुष्प खिले तो भला क्या आश्चर्य! पहाड़ का यह सुर्ख बुरांश हमारे और हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए संघर्ष से जूझने के अकूत साहस और कर्मठता का संदेश दे गया।

 

‘पथरीली पगडंड़ियों’ के इस विद्वान जुझारू यात्री की जीवन यात्रा कल पूरी हो गई। अलविदा श्रद्धेय डा. खड्ग सिंह वल्दिया।