धीर-गंभीर भारी

||धीर-गंभीर भारी||

 


छिछोर व्यक्ति, हल्के स्वभाव के नेता जल्द नापसंद हो जाते। हल्की वस्तुओं का रूप बिगड़ जाता है। गंभीर व्यक्ति, वजनी चीजें हमेशा यादों में रहती हैं।

 

तीन लीटर आयतन का यह बर्तन साढ़े चार किलो का है। तीन पीढ़ियों ने इसका जीभर उपयोग किया, अब चौथी पीढ़ी के घर की शोभा है। इसका निर्माण करीब 173 साल पहले हुआ है। सुना है यह दादा जी की ससुराल से आया। तब से लकड़ी के चूल्हों पर चढ़ता रहा। मिट्टी और राख से इसकी घिसाई होती रही। न इसकी कलई छूटी, न रंग फीका पड़ा, न कोई दाग और न ही कोई खरोंच आई।

 

यह धातु कांसा (Bronze) है। बताते हैं कांसे की खोज ने मानव का पराक्रम बढ़ा दिया। इसने नवपाषाण युग का अंत कर दिया, खेती के साथ मानव सभ्यता का इतिहास शुरू हुआ। प्रागकाल से अब तक इस धातु का उपयोग कम न हुआ। हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की खुदाई हो या सुमेर, मिस्र, ईरान, चीन की प्राचीन सभ्यताएं, हर जगह इसकी कारीगरी के नमूने मिले हैं। बर्तन, औजार, आभूषण, मशीन, मूर्तियों में इसका खूब उपयोग हुआ।

 

तांबे में जस्ता, निकिल, आरसेनिक, टिन मिलाकर तैयार की जाने वाली यह धातु आसानी से नए आकार में ढल जाती है। हर कालखंड में धातुकर्मियों की मेधा और तकनीकी क्षमता ने मानव जीवन सुखद बना दिया। भारत में हर जगह धातुओं को विविध आकार दिए गए।

 

उत्तराखंड का अल्मोड़ा शहर तांबे के बर्तनों की सुंदरता के लिए मशहूर हुआ। इसे ताम्र नगरी के नाम से भी जाना गया। यूपी के मुरादाबाद शहर के पास पीतल के बर्तनों की खास नक्कासी ने इसे पीतलनगरी का नाम दिया।

 

विशेषज्ञ बताते हैं उत्तराखंड के कुमाऊं में करीब 15वीं ईसा पूर्व ताम्र संचय की संस्कृति विकसित हुई। यहां मनुष्यों ने तांबे से उपकरण और हथियार बनाने शुरू किए थे। कई स्थानों में तांबे की बनी मानव आकृतियां, बर्तन व उपकरण मिले। चंद और गोरखा शासन में यहां तांबे का बड़ा कारोबार था। पुरातत्वविदों को पिथौरागढ़ जिले के बनकोट, नैनीपातल में भी ताम्र उपकरण मिले। बागेश्वर जिले की खरई पट्टी, सल्ला कफड़खान, राईआगर, बोरा आगर, अस्कोट, रामगढ़ इलाकों में तांबे की खानें थीं। बाद में अंग्रेजों ने तांबे की खानों पर रोक लगा दी।

 

दुर्गम पर्वतीय इलाकों के पारंगत शिल्पकारों ने हजारों साल पहले तांबे में अन्य धातुएं मिलाकर कांसे का निर्माण भी किया। इस धातु की सुंदर सफेदी लिए रंग के बर्तन और मूर्तियां प्रसिद्ध थीं। तांबे के कई कुंतल वजनी बर्तन शादी-समारोहों में आज भी उपयोग में लाए जाते हैं। इन बर्तनों को ढोने में तीन-चार लोगों की जरूरत होती है। बर्तनों पर लगे मोटे कुंडों पर बांस का डंडा फंसाकर दो-चार लोग कंधे पर उठाकर इन्हें एक घर से दूसरे घर ले जाते हैं।

 

कांसे का लोटानुमा छोटा बर्तन घरों में बहुत उपयोगी था। इसे भड्डू भी कहते हैं। इसकी मोटी चादर भोजन को देर तक गर्म रखती। धीमी आंच में पकी साबुत दालें, मटन, चावल का स्वाद अनोखा होता। रोज चूल्हे पर चढऩे वाला यह बर्तन राख से आसानी से साफ हो जाता है। बहुत कम घर्षण (Friction) वाली यह धातु न पिचकती है, न आसानी से टूटती है, न इस पर कोई दाग बैठता है। पिछली सदियां अद्भुत भारी कामों के लिए जानी गईं।



 

इस सदी में भारी बर्तन चलन से गए, बड़े उद्यम उजड़ते गए, राज नेताओं की कलई उतरी, मगर इस कांसे की चमक पर आंच न आई.