श्री जुवांठा, एक बेहद संवेदनशील समाजशास्त्री थे
||श्री जुवांठा, एक बेहद संवेदनशील समाजशास्त्री थे||

 


ऐसे सरल हृदय, ईमानदार और स्पष्टवादी थे हमारे पर्वतीय विकास मंत्री रहे बर्फिया लाल जुवांठा...!

- जुवांठा जी की अनछुई सच्ची कहानी....!

- तब के पर्वतीय विकास मंत्री, उत्तराखंड के आज के मुख्यमंत्रियों से कई मामलों में ज्यादा प्रभावशाली हुआ करते थे।

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गरीब परिवार में जन्मे कुमोला गांव, पुरोला उत्तरकाशी के युवा बर्फिया लाल जुवांठा तब चर्चा में आए जब उन्होंने 1970 में प्रदेश के दिग्गज नेता बलदेव सिंह आर्य को विधानसभा चुनाव में हरा दिया। फिर कुछ समय वे राजनीति नेपथ्य में चले गये और 1989 में फिर एक बार विधायक बनकर मुलायम सरकार में पर्वतीय विकास मंत्री बने।

 

मैं उनकी ईमानदारी और सादगी का कायल था, वे मेरे क्षेत्र से विधायक भी थे और मैं तब हिन्दुस्तान अखबार, दिल्ली में उप संपादक था, इसलिए वे जब भी वे दिल्ली आते तो मुझे फोन कर कहते, रावत जी कल दाल भात साथ खाएंगे।

 

ऐसे ही एक सुबह मैं, उत्तर प्रदेश निवास पहुंचा तो कमरे में जुवांठा जी के साथ आठ दस इलाके के आदमी जोर जोर से हंस रहे थे। तभी जुवांठा जी ने बिस्तर पर बिछी सफेद चादर पर मैले पैर के निशान की ओर इशारा करते हुए बोले, यार दोस्तो दिल्ली में आकर तो पैर धो लिया करो, तभी वे बोले, मंत्री जी ये आपके पैरों के निशान हैं, वे जोर से हंसते हुए, बोले अरे चलो, मंत्री के लिए ये माफ है। पता चला कि रात को डबल बेड पर मंत्री जी सहित चार लोग सोये थे।

 

तभी नाश्ता आया, चार पांच लोग बाहर मिलने बैठे थे, बोले उनको भी नाश्ता खिलाओ, वे ना नुकुर करते रहे पर उन्होंने उनको बुलाकर सबके साथ नाश्ता करवाया, बोले रावत साहब, मुझे अनुभव है कि जब नेता व अधिकारी अंदर नाश्ता कर रहे होते थे, तब हम जैसे लोग बाहर बैठकर नाश्ते की खुशबू सूंघकर लार टपकाते रहते थे।

 

फिर उन्होंने एक घटना सुनाई, बोले मेरी माली हालत खराब थी, मेरे एक दोस्त ने कहा, हम मिलकर नाप लैंड का काम करते हैं, इसमें किसानों के खेतों में सूखे पेड़ों की बिक्री के लिए वन व राजस्व विभाग से स्वीकृति लेकर उनका व्यापार करते थे।

 

कुछ पेड़ मिले तो हम उनकी कटाई के लिए डेरा लेकर उस गांव पहुंच गये। काम शुरु हुआ तो हमारा नाम मालदार पड़ गया। राशन वाले से लेकर गांव में कच्ची शराब निकालने वाली माता बहिनों के यहां उधार के खाते खुल गये, मालदार जी के साथ दो-चार लोग भी फ्री में जीमने लगे।

 

तभी विधानसभा चुनाव आये, टिकट मिला और लोगों के सहयोग से मैं चुनाव जीत गया। मंत्री बना और क्षेत्र में मेरे दौरे शुरू हो गये, एक बार मेरा दौरा उसी गांव में लगा जहां मैं सालभर पहले मालदार था।

भाषण हो रहे थे, तभी मेरी नजर एक बूढ़ी मां पर पड़ी, वह एक टक मुझे देख रही थी। मुझे याद आया कि मालदारी के जमाने के इसकी कच्ची शराब के 20 रूपये मुझ पर उधार थे, मैं उस गरीब मां का उधार चुकाना चाहता था, जिसने मुझे मंडवे की गर्म रोटी, हरे साग के साथ कीम की दारू बड़े प्यार से पिलाई थी, पर साथ में नेताओं व अधिकारियों का हुजूम था, खैर , सभा खत्म हुई तो मैं भीड़ में लोगों से मिलने चला गया और उस मां के हाथ में चुपके से सौ का नोट थमाते हुए कान में बोला, तेरी दारू का उधार..वे ना ना करती रही....उसके समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे रातों रात इतना बड़ा आदमी बन गया.....और मैं आगे बढ़ गया, किसी की समझ कुछ नहीं आया........।

 

श्री जुवांठा, एक बेहद संवेदनशील समाजशास्त्री भी थे, वे इलाहबाद विश्व विद्यालय से भूगोल से एम. ए. थे।

 


एक दिन उनका फोन आया, खुश थे, महाराज, आपके लेख ने तो तहलका मचा दिया, मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी ने यह पढ़कर मुझे गले लगाते हुए कहा, जुवांठा जी आपकी और मेरी कहानी मिलती जुलती है।

यह कहानी मैंने अपने हिन्दुस्तान अखबार के " नेता जी कहिन " कालम में छापी थी।

तब दिल्ली के राष्ट्रीय अखबारों की श्रेणी में हिन्दुस्तान, नवभारत व जनसत्ता ही आते थे और इन्हे हर बड़ा नेता पढ़ता था।


 

लेखक - वरिष्ठ पत्रकार है।