भारतीय भाषा आंदोलन और हिंदी

|| भारतीय भाषा आंदोलन और हिंदी|| 


भारत में हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर कई आंदोलन हुए हैंउनमें से जहां तमिलनाडु का आंदोलन हिंदी विरोधी रहा तो बाद के दिनों में दिल्ली में भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा को लेकर कई आंदोलन हुए। संविधान के मुताबिक हिंदी को 26 जनवरी 1965 को अपना स्थान लेना था। हिंदी भले ही राजभाषा हो, संविधान के अनुच्छेद 343 ने भले ही हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया हो, भले ही इसे संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को मंजूरी दे दी हो, कुछ राज्यों को हिंदी से विरोध हैइस विरोध के पीछे स्थानीय भाषाओं का हक़ मारने के तर्क से कहीं ज्यादा राजनीतिक है। यह संवैधानिक समय सीमा पूरी होती, समाजवादी आंदोलन के प्रखर सेनानी डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने 1957 में अंग्रेजी हटाओ मुहिम को सक्रिय आंदोलन में बदल दिया। वे पूरे भारत में इस आंदोलन का प्रचार करने लगे। लेकिन इस दौरान दक्षिण भारत के राज्यों खासकर तमिलनाडु में आंदोलन का विरोध होने लगा । यहाँ के लोगों को लग रहा था कि अंग्रेजी हटाने की आड़ में उन पर हिंदी थोपी जा रही है। इस आंदोलन में 1962-63 में जनसंघ भी सक्रिय रूप से शामिल हो गया इसकी वजह से कुछ जगहों पर आंदोलन का हिंसक रूप भी दिखा। कई जगहों पर दुकानों के अंग्रेज़ी में लिखे साइनबोर्ड तोड़ दिए गए।


इस आंदोलन के खिलाफ सबसे तीखी प्रतिक्रिया तमिलनाडु में मानी जा सकती है। वैसे अब भी हिंदी के मुखर विरोध के लिए सबसे ज्यादा तमिलनाडु ही जाना जाता है। हिंदी के खिलाफ 1937 में ही वहां माहौल बन गया, जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की प्रांतीय सरकार ने मद्रास प्रांत में हिंदी को लाने की कोशिश शुरू की। तब सीए अन्नादुराई द्वारा स्थापित दल द्रविड़ कषगम (डीके) ने इसका विरोध किया था। विरोध बाद में हिंसक झड़पों में बदल गया, जिसमें दो लोगों की मौत भी हुई थी।


तमिलनाडु में ही अगला और पहले से कहीं और ज्यादा हिंसक विरोध 1965 में दूसरी बार शुरू हुआ । जब संवैधानिक प्रावधान के मुताबिक संविधान लागू होने के पंद्रह साल बाद हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने की कोशिश की गईतब सीए अन्नादुराई ने इसके विरोध में उस साल के गणतंत्र दिवस यानी 26 जनवरी को तमिलनाडु के सभी घरों की छतों पर काला झंडा लगाने की अपील की। बाद में जब उन्हें लगा कि इससे राष्ट्रीय अस्मिता पर सवाल उठ सकता है तो उन्होंने यह तारीख बदलकर 25 जनवरी कर दी थी। सीए की अपील पर पूरे तमिलनाडु में हिंसक विरोध प्रदर्शन शुरू हुएराज्य भर में हजारों लोग गिरफ्तार किए गएलेकिन मदुरै में विरोध प्रदर्शनों ने हिंसक रूप ले लियास्थानीय कांग्रेस दफ्तर के बाहर एक हिंसक झड़प में आठ लोगों को जिंदा जला दिया गया 25 जनवरी की उस तारीख को तमिलनाडु में 'बलिदान दिवस' का नाम दिया गया। आपको याद दिला दें तो उस समय मदुरै के जिला कलेक्टर टीएन शेषन थे, जो बाद में देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त बने। बेशक उन्होंने हिंदी विरोधी आंदोलन को एक मजिस्ट्रेट के नाते संभाला..लेकिन वे भी मानते रहे हैं कि हिंदी इस देश की एकता के लिए जरूरी है। शेषन ने 1995 में एक कांफ्रेंस में कहा था कि उनकी दादी तमिल के अलावा दूसरी किसी भाषा का एक भी शब्द नहीं जानती थीं। लेकिन वह उत्तर भारत स्थित चारों धाम की यात्रा करके लौटी और उन्हें इस तीर्थ यात्रा में खास दिक्कत नहीं हुईशेषन का मानना था कि हिंदी का विरोध शुद्ध राजनीतिक है। बहरहाल 1965 में करीब दो हफ्ते तक चले विरोध प्रदर्शनों और हिंसक झड़पों में आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 70 लोगों की जानें गई। पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी सी रॉय भी हिंदी थोपे जाने के खिलाफ थे । दक्षिण के सभी राज्य इसके विरोध में थे, जिनमें कुछ कांग्रेस शासित राज्य भी थे।


विरोध प्रदर्शनों के नतीजतन उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री को आश्वासन देना पड़ा । इसी आश्वासन के मुताबिक तात्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने राजभाषा अधिनियम में संशोधन कराया और अंग्रेज़ी को सहायक राजभाषा का दर्जा दिलाया। कुछ दक्षिण भारतीय लोगों का कहना है कि चूंकि तमिलनाडु ने अंग्रेज़ी पर बहुत निवेश किया हैतमिल बुद्धिजीवी मानते हैं कि तमिल लोगों ने इसका सामाजिक विकास और आर्थिक समृद्धि की सीढ़ी और तरक्की के तौर पर इस्तेमाल किया है और तमिल ने इसे खास पहचान दी है। लिहाजा अंग्रेज़ी को वे नकार नहीं सकते।


साठ के दशक में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने जिन दिनों अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन छेड़ा, उन्हीं दिनों अंग्रेज़ी के समर्थन और हिंदी के विरोध में अपने अख़बार स्वराज के जनवरी 1968 के अंक में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने एक लेख लिखा था। जिसमें उन्होंने संविधान सभा द्वारा हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने संबंधी कार्यवाही को ही अप्रासंगिक करार दे दिया। इस लेख में उन्होंने कहा है कि देश की भाषा की समस्या को सदा के लिए समाप्त करने के लिए संवैधानिक तौर पर दो कदम उठाए जा सकते हैंपहला कदम यह कि राजभाषा वाला अनुच्छेद ही संविधान से खत्म कर दिया जाए और उस अनुच्छेद में सुधार कर लिख दिया जाए कि इंगलिश शैल बी ऑफिशियल लैंग्वेज यानी अंग्रेजी ही राजभाषा होगी।


अपने जीवन के आखिरी दिनों में जो व्यक्ति हिंदी के बारे में ऐसा विचार व्यक्त कर रहा था, वही व्यक्ति हिंदी को लेकर एक दौर में कितना उत्साही था. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत वर्ष 1937 में राज्यों में चुनाव हुए और राजाजी मद्रास प्रांत के प्रीमियर बने तो उन्होंने उन्हीं दिनों मद्रास प्रांत में हिंदी लाने की वकालत शुरू कर दी थी। दिलचस्प यह है कि राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत होने और जिस बंगाल से हिंदी की ध्वज पताका फहराना शुरू हुई, उसी बंगाल के नेता डॉक्टर बिधान चंद्र रॉय हिंदी को राजभाषा के तौर पर स्वीकार करने के विरोधी थे। हिंदी के प्रति राजाजी की सेवा का महत्व इससे पता चलता है कि वे दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के निदेशक पद पर गांधी जी के अनुयायी जमना लाल बजाज के अनुरोध पर 1928 से लेकर 1938 तक रहे।


कृष्ण बिहारी मिश्र ने अपनी पुस्तक 'हिंदी साहित्य की बंगीय भूमिका' में लिखा है कि 1875 में ब्रह्म समाज के संस्थापक केशवचंद्र सेन भी देश को जोड़ने की ताकत हिंदी में ही देख चुके थे। उन्होंने तो दयानंद सरस्वती से भी कहा था कि वे हिंदुत्व को पुनर्स्थापित" करने वालाप्रयास हिंदी में ही करें कोलकाता में केशव चंद्र सेन से हुई मुलाकात के बाद ही दयानंद सरस्वती ने हिंदी में प्रवचन देना और अपनी बात कहना शुरू किया थाइसके पहले तक वे संस् त में ही अपनी बात कह रहे थे और आर्य समाज का प्रचार कर रहे थेयहां यह ध्यान देने की जरूरत है कि केशव चंद्र सेन खुद बेहतरीन अंग्रेज़ी जानते-लिखते और बोलते थेउनके बारे में कहा जाता है कि जब वे लंदन गए तो उनकी अंग्रेज़ी सुनने के लिए अंग्रेज़ उमड़ पड़ेवह व्यक्ति भी हिंदी में ही देश को जोड़ने का संकल्प देख रहा थाइसके ठीक तीस साल बाद 1905 में वाराणसी में हुए नागरी प्रचारिणी सभा के अधिवेशन में मुख्य अतिथि के तौर पर बोलते हुए लोकमान्य तिलक ने भी हिंदी में ही देश को जोड़ने की ताकत का उल्लेख किया थागांधी जी को हिंदी के प्रति गैर हिंदीभाषी विद्वानों और राजनेताओं के ये विचार भी पताथे । इसीलिए उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के तमाम हथियारों में एक हथियार हिंदी को भी बनाया और इसके लिए गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए हिंदी प्रचार सभा की स्थापना की। उन्हीं की प्रेरणा से 16 जून 1918 को मद्रास (अब चैन्नई) में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना हुई। इसकी महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसका कामकाज देखने के लिए स्वामी सत्यदेव परिव्राजक के साथ गांधी जी के सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी मद्रास पहुंचे।


इन्हीं दिनों गांधी जी के प्रिय जमनालाल बजाज हिंदी के प्रचार-प्रसार के काम के लिए मद्रास पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने राजाजी से भी संपर्क किया राजाजी तब तक दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के लिए काम शुरू कर चुके थे। उसके सहयोग के लिए जतन भी करने लगे थेजमनालाल बजाज के संपर्क में आने के बाद उन्होंने लगभग डेढ़ महीने तक दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की खातिर धन जुटाने के लिए बजाज के साथ तमिलनाडु के गांव-गांव घूमते रहे । तब तक राजाजी भी मानने लगे थे कि स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी सहयोगी हो सकती है, बशर्ते उसका गैर हिंदी भाषी इलाकों में भी विस्तार किया जाएइसके बाद वे हिंदी के विस्तार के कार्य में प्राणपण से जुट गए जब दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का काम बढ़ा तो उसे संस्थानिक तौर पर चलाने का सवाल उठा और जमनालाल बजाज को उसके निदेशक पद पर काम करने के लिए तमिल ब्राह्मण राजाजी से ज्यादा दूसरा कोई उपयुक्त व्यक्ति नजर नहीं आया।


हिंदी सेवी गोवर्धन लाल पुरोहित अपने आलेख 'राजाजी की हिंदी सेवा' में लिखते हैं- “निदेशक बनने के बाद वह (राजाजी) 1928 से लेकर 1946 तक इस सभा (दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा) के निधि पालक रहे । इस तरह बीस वर्षों तक हिंदी प्रचार सभा को राजाजी का पितृवत स्नेह मिलता रहा । राजाजी की छत्रछाया में सभा एक संपन्न, सुस्थिर तथा यशस्वी संस्था बन गई और दक्षिण भारत की सभी राष्ट्रीय प्रवृत्तियों का केंद्र बनी और मूर्तिमान राष्ट्रीयता का पर्याय बन गई। 'राजाजी दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में इतनी दिलचस्पी लेते थे कि उनकी ही देखरेख में 1943 में इस संस्था की रजत जयंती मनाई गई। जिसमें महात्मा गांधी ने भी हिस्सा लिया थादक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के निदेशक पद का दायित्व संभालते ही राजाजी की प्रेरणा से अंग्रेजी-हिंदी शिक्षक का प्रकाशन हुआ । इसके पहले संस्करण की प्रस्तावना में राजाजी ने लिखा है"हिंदी को (हमें) केंद्रीय सरकार एवं परिषद की और प्रांतीय सरकारों के बीच आपसी कामकाज की भाषा मानना है यदि दक्षिण भारत के भारतीय क्रियात्मक रूप से पूरे भारत देश के साथ एक सूत्र में बंधकर रहना चाहते हैं और अखिल भारतीय मामलों और तत्संबंधी निर्णयों के प्रभाव से दूर नहीं रहना चाहते तो उन्हें हिंदी पढ़ना जरूरी है।


राजाजी इसी भूमिका में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता की मुखालफत तर्कों द्वारा करते हैं। वे कहते हैं कि यह संभव और वांछित नहीं है कि अंग्रेज़ी को बनाए रखकर पूरे भारत में जनता द्वारा अपने प्रतिनिधि पर नियंत्रण को कमजोर किया जाए। राजाजी हिंदी को भारत की सांस् तिक एकता के लिए भी जरूरी मानने लगे थे। बाद में जब केरल में 1934 में केरल हिंदी प्रचार सभा, आंध्र में 1935 में हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद और कर्नाटक में 1939 में कर्नाटक हिंदी प्रचार समिति और 1943 में मैसूर हिंदी प्रचार परिषद की स्थापना हुई तो इसके पीछे भी कहीं न कहीं राजगोपालाचारी की प्रेरणा भी थी।


फिर क्या वजह रही कि वही राजगोपालाचारी 1953 तक आते-आते हिंदी के विरोधी हो गएइसे लेकर कहीं ठोस और स्पष्ट जानकारी नहीं मिलतीहालांकि कुछ जानकार मानते हैं कि इसके पीछे भारतीय राजनीति में उनका प्रतिकार भी बड़ी वजह रही1927 में महात्मा गांधी ने राजाजी के लिए कहा था, "मैं कहता हं कि वे (राजाजी) ही एक मात्र संभावित उत्तराधिकारी हैं।" राजाजी की तीक्ष्ण बुद्धि और भारतीय सांस्, तिक परंपरा के उनके ज्ञान से गांधी जी बहत प्रभावित थे। यह बात और है कि बाद में राजाजी की उनसे दूरियां बढ़ने लगीं । नटवर सिंह अपनी किताब 'कुछ चेहरे, कुछ चिट्ठियां' में लिखते हैं कि 1942 में गांधी जी ने उनके प्रति मानस बदला और घोषित कर दिया कि राजाजी नहीं, जवाहर लाल उनका उत्तराधिकारी होगा। इसके बाद 1942 से 1945 के बीच राजाजी ने खुद को सार्वजनिक गतिविधियों से दूर कर लिया। नटवर सिंह लिखते हैं कि जब देश अपनी आजादी की निर्णायक लड़ाई लड़ रहा था, उसी वक्त राजाजी का यह कदम समझ से परे था । बयालिस के आंदोलन में उनकी भागीदारी ना होना सचमुच हैरत अंगेज़ था।


माना जा सकता है कि गांधी ने उनकी जगह जवाहर लाल को अपना उत्तराधिकारी क्या घोषित किया, राजाजी के मन में गांठ पड़ गई । अगली गांठ उनके मन में 1952 में पड़ी । तमाम वैचारिक विरोधों के बावजूद नेहरू चाहते थे कि राजाजी देश के पहले राष्ट्रपति बनें । वैसे भी आजाद भारत के पहले देसी गवर्नर जनरल वे थे हीइसके पहले बंगाल के गवर्नर का दायित्व भी वे संभाल चुके थेमद्रास के 1937 में प्रीमियर यानी प्रधानमंत्री भी थे। उस दौर में दो व्यक्ति संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) के तत्कालीन प्रीमियर गोविंद बल्लभ पंत और मद्रास के प्रीमियर राजगोपालाचारी ही अपनी प्रशासनिक छाप छोड़ पाए थे। बेशक नेहरू उन्हें देश के सर्वोच्च पद पर देखना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल 1942 में राजाजी की भूमिका को भूल नहीं पाए। सरदार की प्रेरणा से ही कांग्रेस कार्य समिति ने राजाजी का नाम खारिज करके डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के नाम पर हामी भरी। इन घटनाओं के बाद राजाजी खामोश हो गए। उस दौर के राजनीतिक समीक्षक कहते हैं कि राजाजी क अतरतम का कोई जान नहीं पाया, क्योकि वे अविक्षुब्ध और मौन बने रहे। लेकिन जब उनका यही मौन टूटा तो वह हिंदी के खिलाफ विष बनकर निकला।


हिंदी का तमिलनाडु में विरोध 1965 की 26 जनवरी को होना था । संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक हिंदी को इसी दिन से अंग्रेजी की जगह राजभाषा की जगह लेनी थीइसके विरोध में तमिलनाडु के एक स्थानीय नेता डोरई मुरुगन ने इस कदम का विरोध शुरू कर दिया। उनकी अपील काम कर गई। उनका मकसद हिंदी के विरोध में 26 जनवरी 1965 को पूरे तमिलनाडु को काले झंडे से पाटने का था। लेकिन तब तक देशप्रेम बचा हुआ था। उन्हें लगा कि अगर वे गणतंत्र दिवस को ऐसा करते हैं तो उसका संदेश गलत जाएगा, लिहाजा उन्होंने गणतंत्र दिवस की बजाय एक दिन पहले यानी 25 जनवरी 1965 को तमिलनाडु में हिंदी के विरोध के लिए चुनाउस दिन पूरे राज्य में हिंदी के विरोध में काले झंडे लहराए गए1965 की गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर लहराये गए, वे काले झंडे हिंदी की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बन गए । दिलचस्प यह है कि मद्रास में पहली बार हिंदी लाने की वकालत करने वाले राजाजी ने इसका विरोध नहीं किया जो व्यक्ति तमिलनाडु की पहली निर्वाचित सरकार के मुखिया के तौर पर हिंदी की वकालत कर रहा था, उसके मानस का यह बदलाव भी समझ से परे है। ऐसे में उनके साथ हुई राजनीतिक नाइंसाफी (अगर थी तो) को ही इसका जिम्मेदार माना जाना स्वाभाविक है । इसे हवा उनके मौन ने भी दी।


बहरहाल जनवरी 1968 के स्वराज में छपे अपने लेख में उन्होंने हिंदी को भी बहुसंख्यकों की भाषा की बजाय अल्पसंख्यकों की ही भाषा माना है। उनका तर्क है कि हिंदी बेशक बड़े समुदाय द्वारा बोली जाती है, लेकिन वह भी अल्पसंख्यक भाषा ही है। जो राजगोपालाचारी 1920 के दशक में हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए अभियान चला रहे थे, वही अब कहने लगे थे कि हिंदी में वह ताकत नहीं है कि राजभाषा के तौर पर हासिल अंग्रेज़ी का स्थान वह ले सके । उसने तकनीकी शब्दों तक का विकास नहीं किया है। आज के दौर में जब भी हिंदी के समर्थन में जोरदार तर्क दिए जाने लगते हैं, अंग्रेज़ी की ओर से राजगोपालाचारी के उसी लेख को काट के तौर पर पेश किया जाता है।


आखिरी दिनों में राजाजी ने हिंदी के खिलाफ चाहे जो भी भूमिका निभाई हो, हिंदी को लेकर 1920 के दशक से लेकर 1940 के दशक की उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता अब हिंदी को लेकर तमिलनाडु में भी आग्रह नहीं रहा । उत्तर भारत में नौकरियां हासिल करने के लिए अब तमिलनाडु के लोग भी हिंदी पढ़ने को जरूरी मानने लगे हैं। 2009 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस विषय पर एक रिपोर्ट छापी थी। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा और उसके आनुसंगिक संगठनों से हर साल लाखों विद्यार्थियों का हिंदी की परीक्षाओं में बैठना और राष्ट्रभाषा के प्रति अपना सम्मान प्रकट करना मामूली बात नहीं है। कहीं न कहीं, इसके मूल में राजाजी की शुरूआती हिंदी सेवा भी है।


बाद में हिंदी के समर्थन में आंदोलन की रूपरेखा बदल गई और उसकी प्रगति भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलने में देखी गई। उल्लेखनीय है कि 18 जनवरी 1968 को भारतीय संसद ने एक भाषाई संसदीय संकल्प पारित किया था। लेकिन यह संसदीय संकल्प सिर्फ कागजी ही बना रहा। इसे लेकर उत्तर भारत के नौजवानों में सुगबुगाहट बढ़ने लगी। इस संकल्प के 20 वर्षों तक लागू नहीं होने से उपजे विक्षोभ के चलते 16 अगस्त 1988 को संघ लोक सेवा आयोग के मुख्य दरवाजे पर पुष्पेंद्र चौहान और राजकरण सिंह जैसे नौजवानों ने धरना शुरू कर दिया। जिसे विश्व का सबसे लम्बा धरना होने का श्रेय हासिल है। यह धरना 14 वर्षों तक चला और ऐतिहासिक साबित हुआ । इस धरने में पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह, पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी व विश्वनाथ प्रताप सिंह, पूर्व उपप्रधानमंत्री देवीलाल व लालकृष्ण आडवाणी, केन्द्रीय मंत्री राजनाथ सिंह व रामविलास पासवान, कामरेड इन्द्रजीत गुप्त सहित चार दर्जन से अधिक वरिष्ठ जनप्रतिनिधि सम्मिलित हो चुके हैं। गौरतलब है कि सन 2002 में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार ने आन्दोलन को समाप्त करने के लिये राजी कर लिया था। बहुत कम लोगों को पता है कि इस आंदोलन के प्रेरक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, हिंदी साहित्यकार बलदेव वंशी और वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र रहेयह बात और है कि अटल जी की सरकार के ही दौरान 1999 में संघ लोकसेवा आयोग के सामने से इस धरने को जबरिया हटाकर सड़क की दूसरी तरफ फेंक दियागया था।


भारतीय भाषाओं के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि अब भी उन्हें न्याय की भाषा नहीं बनाया गया हैसिर्फ राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालयों में ही हिंदी में काम की अनुमति है। इस सिलसिले में इन दिनों अतुल कोठारी के नेतृत्व में शिक्षा संस् ति उत्थान न्यास आंदोलन चला रहा है। इसके पहले श्याम रूद्र पाठक 225 दिनों का सत्याग्रह कांग्रेस मुख्यालय के बाहर चला चुके हैं। बाद में उसे वे प्रधानमंत्री निवास के सामने लेकर गए थे। पाठक ने यह धरना 4 दिसम्बर 2012 को शुरू किया था। उनकी मांग थी कि सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी और उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा सम्बंधित राज्यों की मातृभाषा में बहस हो इसके लिए वे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन चाहते थे।


श्याम रुद्र पाठक को कांग्रेस मुख्यालय के बाहर सत्याग्रह करने की अनुमति कई शर्तों के साथ मिली थी। शर्त के अनुसार वे सुबह 10 बजे कांग्रेस के दफ्तर के बाहर सत्याग्रह पर बैठते थे और शाम को छह बजे पुलिस उन्हें उठाकर तुगलक रोड थाने ले जाती थी। रात भर वे वहीं रहते थे। फिर सुबह वे सत्याग्रह स्थल पर पहुंच जाते थे। किन्तु 16 जुलाई 2012 की शाम को लगभग साढ़े पांच बजे धरने के दौरान उन्हें तुगलक रोड पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और अगले दिन उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया। 25 जुलाई को श्यामरुद्र पाठक को तिहाड़ जेल से रिहा कर दिया गया। बाद में भारतीय भाषा आंदोलन ने जंतर-मंतर पर अपने अध्यक्ष पुष्पेंद्र सिंह चौहान और महासचिव देवसिंह रावत की अगुआई में 21 अप्रैल 2013 से धरना शुरू किया। जिसके समर्थन में महात्मा गांधी के पोते कानू गांधी, विश्वविख्यात योगगुरू स्वामी रामदेव, पूर्व केन्द्रीय मंत्री सोमपाल शास्त्री सहित अनेक वरिष्ठ देशभक्त सम्मलित हुए हैं।


इसके बाद 27 जून 2014 को सिविल सेवाओं के अभ्यार्थियों ने संघ लोक सेवा आयोग द्वारा भारतीय भाषाओं के साथ किये जा रहे भेदभाव के विरुद्ध प्रधानमंत्री आवास, 7 रेस कोर्स, के बाहर लगातार बारह घंटे का धरना दिया। जो शाम 4 बजे से अगले दिन सुबह 4 बजे तक जारी रहाइसके पहले उन्होंने दिल्ली के मुखर्जी नगर में धरना दिया था। फिर 6 जुलाई 2014 से राष्ट्रीय अधिकार मंच द्वारा सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा के पाठ्यक्रम से सी सैट को हटाने और भारतीय भाषाओं के साथ भेदभाव को खत्म करने को लेकर आमरण अनशन किया।


स्रोत - समाचार भारती, समाचार सेवा प्रभाग, आकाशवाणी